पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अध्याय ७ वॉ] [काशी और प्रयाग mamrawrrrrrrr ही की थी। एक बूढा डेप्युटी कलेक्टर रास्तेम दीख पडा। सवारोंने उसका पीछा किया तब जौनपुरके कुछ लोगोने बिचवाई कर कहा 'जाने दो उसे; हमारा बडा उपकार किया है इसने ।" किन्तु सिपाहियोंने कहा " चाहे जो हो वह अग्रेज है, उसे मरनाही चाहिये ।"* ___ गहरा द्वेष इतना ऊधम मचा रहा था तो भी जिन अग्रेजोंने शरण मागी और अपने शस्त्र रख दिये उनको जीवित आने दिया गया। इस सहूलियतसे लाभ उठाकर बहुतेरे अग्रेज थोडेसे समयमे जौनपुर छोड भाग गये । बनारस पहुंचने के लिए गगापार होनेके लिए कुछ किश्तियाँ भी किरायेसे लीं। किन्तु मझधारमें मल्लाहोंने उन्हें लूटा और बादपर ला छोड दिया । सारा जौनपुर कातिके नारे लगाते हुए जमा हुआ और गोरोके, घरबार लूट तथा जलाकर अग्रेजी हुकुमतके सभी चिन्ह मिटा दिये। सैनिक, जितना साथ लिया जा सके उतना खजाना लेकर, अयोध्याको चल पडे और बचा हुआ खजाना उन गरीब बुढ़ियों तथा भिखमगोको सौपा गया, जिन्होंने आयुभरमे कभी रुपया नहीं देखा था। उन्होंने जीवन भर मजेमें गुजारा कर दिल्लीके सम्राट तथा स्वराज्यको अतःकरणपूर्वक धन्यवाद दिये। सो, जून ३ को आजमगढ, ४ को बनारस तथा ५ को जोनपुरमें बलवा हुआ। प्रातका प्रमुख नगरही शत्रुके हाथ लगे तो प्रातभरमे क्रातिका जोर ठढा पड जाता है, यह नियम है ! किन्तु कातिकालम सारे प्रातको राजधानीपर अवलवित रहना, कातिशास्त्रकी दृष्टीसे बड़ी भारी भूल तथा धोखा है ! इटलीके क्रातिशास्त्रके प्रणेता मजीनी कहते हैं " जहाँ हमारा झण्डा फहरे, वहीं हमारी राजधानी है।" राजधानी कातिके पीछे चले, क्राति उसके पीछे नहीं ! विद्रोहकी रूपरेखा शुरूमे चाहे जितनी चतुरता तथा सूक्ष्मतासे बनायी गयी हो, प्रत्यक्षमे सब कार्यक्रम निश्चित सिलसिलेसे नहीं चलता। इससे, राजधानीमें भलेही कातिकी जीत न हुई हो, प्रातके अन्य स्थानोंमे उसका दबाव जरा भी ढीला न होने देना चाहिये। सचमुच, इस सिद्धान्तका सुंदर उदाहरण बनारसने दिखा दिया _* चार्लस् बॉल कृत इडियन म्यूटिनी खण्ड १ पृ. २४५