पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२२६

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wwwwwwwwwwwantraorr r प्रस्फोट १८८ [द्वितीय खंड हिंदू । अंग्रेज मानते न थे कि ये दो समाज एकमन होकर विद्रोह करेंगे। किन्तु, जून १८५७ के उस सस्मरणीय प्रथम सप्ताहमे कई असभव बात प्रत्यक्ष होकर दिखाई पडी। प्रयागके बलवेका समाचार मिलनेकी राह न देखते हुए, प्रातभरके देहात उठे और वहमी एक साथ; और उन्होंने अपनी स्वतत्रता घोषित की । एकही माताके जाये हिंदू और मुसलमान एक साथ उठे और अंग्रेजी सत्तापर टूट पडे । हट्टेकट्टे सैनिकही नहीं, बूढे सैनिक बदी भी राष्ट्रीय स्वयसेवक बनकर आगे आनेमें होड करने लगे। अपनी पकी मूछोंमें बल देते हुए सैनिक-दलोंका सगठन करने लगे। जो स्वय रणमैदानमें बुदापेके कारण या दुबलेपनके कारण जा न सकेते थे, वे नौजवानोंको युद्ध के दॉवपेचोकी जानकारी देते थे और युद्धशास्त्रकी खूत्रियोंको खोलकर बताते थे। फिर क्या आश्चर्य, कि स्वधर्म और स्वराज्यके ऊँचे ध्येयकी लगनके कारण बूढे सैनिकोंमें भी जवानीका जोग उमडा पडा हो, उस ध्येयसे सब जातियो तथा श्रेणियोंके लोगोके मनको भी छा दिया हो ! मारवाडी बनिये भी इस प्रचड आदोलनमें हाथ बँटते थे और वह भी इतना महत्त्वपूर्ण था, कि जनरल नीलने भी अपने विवरणमें गोरोके विरुद्ध द्वेषभावनाका जानबूझकर जिक्र किया है। "बहुतेरे प्रमुख व्यापारियों तथा अन्य लोगोंने हमसे कट्टर शत्रुभाव प्रकट किया और उनमें से कुछ लोगोंने तो हमारे विरुद्ध लडे जानेवाले युद्धमे भाग भी लिया। फिर भी अग्रेजीको घमण्ड था कि कमसेकम किसान तो हमारे पक्षमे होंगे। किन्तु इस भ्रमकी कलाइ खोलकर इलाहाबाटने खासी ठोकर लगायी। १८५७ के क्रांति युद्ध में इसके पहिले किसीभी राजनैतिक आदोलनमें किंचित् भी भाग न लेनेवाले किसान पहली हरावलमें थे। पुराने-अग्रेजोको नियुक्तोंके पहलेके-तालुकदारोंके झण्डेके

  • (स. ३०) कल हमारे हाथ चाटनेवाले सिपाही आज उन पेन्सन पानेवाले बूढोंके साथ, जो मैदानमे जानेके योग्य न रहे थे, अन्य लोगोंको कायरता तथा क्रूरताके कार्य करनेमें बढावा बडी लगनसे दे रहे थे।-के कृत इंडियन म्यूटिनी खण्ड २ पृ. १९३. रेडपेम्पलेट भी देखो।