पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२४९

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अध्याय ८ वा] २०९ [कानपुर और झाँसी विश्वास हुआ, कि कमसे कम ये लोग तो वागी नहीं है। उन्हे अपनी बारिकोंमे जानेकी आज्ञा देकर गोरे भी जाते रहे। सैनिकोने देखा यह अच्छा अवसर है। उनके दो अधिकारी, एक ओर हटकर, कुछ कुडबुडाये और उनमेंसे एक दौडते आकर चिल्लाया, “प्रभु सत्यका सहारा है, भाइयो ! चलो, उठो!" इस आदेशके साथ चारो ओरते तलवारे चमकने लगी और बॉका समय देखकर अग्रेजी तोपोंके धमाके सुनावी यडे । किन्तु सभी सैनिक उनके निशानेके बाहर चल चुके थे। ऐसे समयमे अपने सभी अफसरोको मार डालनेका काम सिपाहियोंके लिए बायें हाथका खेल था: किन्तु इसमे समय गॅवानेकी अपेक्षा अपने सैनिक भाइयोंमे जा मिलना अधिक योग्य जानकर वे तुरन्त वहाँसे चल पडे। इस प्रकार जून ५को नानासाहबके डेरेके पासही तीन हजार सिपाहियोने अपना पडाव डाला । सर व्हीलर इसीमें प्रसन्न था, कि एक भी गोरा नहीं मारा गया। वह मनके मोदक खा रहा था, कि अन्य स्थानोंके समान ये तैनिक भी दिल्लीको ओर चले जायेंगे और कानपुर यो ही सकट-मुक्त हो जायगा ! हॉ, और यदि कानपुरमे कुशल नेताओंको कभी होती तो व्हीलरका खयाल ठीक निकलता और अन्य स्थानोके समान यहाँके सैनिक भी दिल्लीको चल पडते! किन्तु उस समय नवाबगंजमे कट्टर और सुगेग्य नेताओकी रच भी की न थी । वहाँ नानासाहब थे: उनके भाई बालासाहत्र, बाबासाहब और रावसाहन भी थे. तात्या टोपे थे और सबसे ब्रटकर अजीतुल्ला खों थे। इस तरह तेजस्वी और बुद्धिसागर नेता वहाँ होनेपर अन्य अगुआ ढूँढनको दिल्ली जानेकी सिपाहियोको क्या पड़ी थी? सबकी सब शक्ति दिल्लीमे बद कर रखनेसे प्रभावपरक काम कर दिखाना अम्भवसा था। अनजाको स्थान स्थानपर सतानेका काम ही सफल योजना थी। और महत्वपूर्ण बात तो यह थी, कि कानपुर दिल्ली, पंजाब और कलकत्तकी यातायातका लगभग केन्द्रबिन्दु होनेसे उसपर जोरदार हमला कर उसे हथियाना आवश्यक था। जब सूवेदारो तथा नानासाहलके विधासी कर्मचारियोने सिपाहियों को इस परिस्थितिको ठीक तरह समझा