पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२५३

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अध्याय ८ वॉ] २१३ [कानपुर और झॉसी इस भीषण धेरेकी घमासान लड़ाई मे भी कुछ अक्लके दुश्मन हिंदी लोगोंको अग्रेजोसे वफादार रहनेकी सझी। केवल राजनिष्ठाके लिए वे मौतकी खाईमें खडे थे। अंग्रेजों की सेवा करनेवाली एक हिंदी सेविकाके दोनों हाथ अमके धडाकेसे कट गये। अपने मालिकको गरम गरम खाना पिरोसनेकी दौडधूपमे कई 'बॉय' तोपके गोलेके धमाकेसे ढेर हो जाते। अग्रेजोंको पानी पिलानेके लिए हिंदी भिश्ती कई बार अपनी जान खतरेमे डालते । पानी इतना थोडा था कि बच्चे चमडेकी मशकोकोही चूसते रहते! हैजा, अतिसार, दोषी ज्वर भी अग्रेजोका प्रतिशोध ले रहे थे। सर जार्ज पार्कर, कर्नल विलियम, और ले.रूनी बीमारीसे मर गये। तोपके गोलों तथा बीमारीसे जो बचे थे वे इस जीवित स्मशानका भीषण वीभत्स दृश्य देखकर ही पागल हो गये ! इस तरह वहाँ कुहराम मच गया था। एक तरहसे, एक अतीके अन्याय्य क्रूर करतूतोंका बदला लेनेके लिए मानो प्रतिगोधका मूर्तिमान देवताही अपने डरावने दाहोंके नीचे जो मिले उसे पीसते, इक्कीस दिनतक भीषण अट्टाहास करते हुए ऊधम मचा रहा था! __ गढीमें यह दशा थी, किन्तु बाहरके मोर्थोपर रखीं अंग्रेजी तोपोंने अवश्य अच्छा काम किया। अॅश, कॅ. मूर कॅ. थॉमसन् और अन्य शूर योद्धा अतुल पराक्रमसे लडे । लखनऊ या इलाहाबादसे सहायता 'पानेकी अग्रेजोंको बहुत आशा थी। क्रातिकारियोंके खुफिया विभागकी कडी । निगरानीके कारण चिठी-पत्रीका व्यवहार असम्भव हो गया था। ऐसी बिकट स्थितिमे भी किसी हिंदी दूतने, आधा लॅटिन, पाव फ्रान्सीसी और शेष अग्रेजीमें लिखा व्हीलरका पत्र पखियोके डैनोमे लपेटकर लखनऊ पहुँचाया, जिसमें लिखा था-" दौडो, सहायता दो नहीं तो हमारी आशा छोडो: हमें सहायता मिले तो हम आकर लखनऊकी रक्षा करेगे" आदि। किन्तु क्रातिकारियोंकी निगरानी सदासे इतनी कडी थी, कि शत्रुका एकाधही उलाकी लौट सकता । लाख लाख रुपयों तक की रिश्वत देनेकी छुट देकर क्रातिकारियोंमें उसे लेनेवाले नीचको ढूंढने के लिए अंग्रेज अपने पिठुओंको रवाना करते, किन्तु लौटकर खबर सुनानेवाला एक भी जीवित न बच पाता । इस बातकी पुष्टिके लिए ऐसेही एक पिठुका कथन हम यहाँ