पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२६१

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अध्याय ८ वॉ] २२१ [कानपुर और झॉसी Amar थे। जिनकी सपत्ति अंग्रेजाने खाकमें मिला दी थी, जिनका धर्म पैरोतले कुचला था, जिनके राष्ट्रको दास बनाया था, वे सब कातिध्वजके पास जमा होकर ' प्रतिगोध ! बदला।' की चिल्लाहटसे कानपुर गूंजा रहे थे ! और विजयका दिन जब समीप आ पहुँचा और जब नानासाहबने अग्रेजोंको इलाहाबाद पहुँचा देना स्वीकार क्रिया, तब सिपाहियोकी प्रतिगोधकी सभी उमगे धूलमे मिले जानेसे वे अपनी अप्रसन्नता प्रकट करने लगे। नावोंके प्रबधका निरीक्षण करनेवाले अग्रेजोके कानम, गगाके घाटपर सिपाहियोंकी 'कत्ल' की कानाफूसी की भनकार पड गयी थी । कहते है, कि राजदरबारके एक पण्डितने सिपाहियोसे स्पष्ट कहा था, " अपने राष्ट्रका विश्वासघात कर उसे गुलाम बनानेवालोंके सिर उडा देनमे धर्मकी दृष्टिंस कोई पाप नहीं है" * ऐसी अशान्तिके साथ २७ जूनका दिन आया। सतीचौरा घाटसे अग्रेजोको रवाना करने का निश्चय हुआ था। रिसाला और पैदल सेनाने । घाटको घेर लिया था; तोपखाना भी तैयार था । कानपुरके हजारो नागरिक सवेरेसे अपनी कल्पनासे बनाये गगाघाटके दृश्यको प्रत्यक्ष होते देखनेको जमा हुए थे। अजीमुल्ला, बालासाहब तथा सेनापति तात्या टोपे घाटके पास एक मदिरके कोठेसे देख रहे थे। मदिरका नाम भी उस प्रसंगके योग्य ही था। अंदर श्री 'हर' की मूर्ति थी, मानो उस समय आसपास सब ओर उस रुद्र भैरव महादेवकी सत्ता स्थापित थी! अंग्रेजोको गगाकिनारे लानेको बढिया सवारियोका प्रबंध नानासाहबने किया था। सर व्हीलरके लिए सुदर सजाया गजराज नानासाहबके महावतके साथ गढीके द्वारपर खडा था। ऐसे अपमानस्पद प्रसगमे हाथीपर चढना उसे ठीक न लगा, सो, वह पालकीमे चला । अग्रेज औरतोंको भी पालकियाँ दी गयी थी। गढीका अग्रेजी झण्डा नीचे खींचकर उस स्थानपर स्वातत्र्य तथा स्वधर्मका ध्वज फहराया गया। अंग्रेजोकी प्रतिष्ठा धूलमे मिलनेसे होनेवाले अपमानसे अंग्रेजोंका हृदय दहलाया नही, उलटे बदियोंने 'जान

  • ट्रेव्हेलियनकृत 'कानपुर'