पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२७८

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प्रस्फोट] २३८ [द्वितीय खंड इधर, इसतरह, अग्रेज अपनी रक्षाकी सावधानी रख रहे थे, उधर फैजाबादमे क्रांतिकी ज्वालाएँ अधिक तीव्रतासे भडक उठीं। भारतीय इतिहासमे अमर बने मौलवी अहमदशाह उन तालुकदारोंसे एक थे, जिनका सब कुछ अग्रजोंने छीन लिया था। हिंदुस्थानके देशभक्तोंमे उनका नाम सदा चमकता रहेगा। उन्होंने अपनी तालुकदारी ही नहीं, भारतकी स्वाधीनता प्राप्त करनेकी सौगंध ली थी। स्वदेशके राजद्वारपर उन्होंने कई कष्टपूर्ण दिन और ऑखोंमें रातें काटकर जागरित रहकर प्रहरीका काम किया था और अदर घुसे हुए पराये शासनको निकाल बाहर कर देनेके लिए हथियार उठाया था। अवधका राज्य अग्रेजोंने जबसे 'हडप लिया था, तबसे अहमदशाहने देश और धर्मकी सेवामें अपना सब कुछ लगा दिया था। वे मौलवी बने और क्रांतिधर्मका प्रचार करनेको हिंदुस्थान भरमें घूमने निकले । जहाँ जहाँ ये राष्ट्रीय संत पहुंचे, जनतामें जबरदस्त जागरण जाग उठा । क्रांतिदलके नेताओंसे वे मिले । उनका वचन अवधके राजघरानेमें ईश्वरका आदेश माना जाता। आगरेमे गुप्त सस्थाकी एक शाखा खोली गयी। लखनऊमे भी ब्रिटिश राजको उलट देनेका खुला प्रचार किया। अवधकी जनता उन्हें असीम प्यार करती थी। तन, मन, धन, बुद्धि, वाणी सब एकही आदर्शकी प्राप्तिमें लगाकर स्वाधीनताके प्रचार तथा कातिके निर्दोष सगठित जालेको बुननेके लिए वे दिनरात लगे रहते थे। आगे चलकर वे लेखक बने और क्रांतिपत्रों को लिखने लगे, जो अवध प्रातभर में वितरित होते थे। एक हाथमें हथियार, दूजेमे लेखनी; उनके असाधारण व्यक्तित्वकी दीप्तिसे स्वतत्रताकी ज्योति और तेजसे दमक उठी। यह देखकर अंग्रेजोंने उन्हें पकडनेकी आज्ञा दी। किन्तु इस जनप्रिय नेताको छूने अवधकी पुलीसका हाथ आगे न बढा; तब एक खास सैनिक टुकडी इस कामपर तैनात हुई और राजद्रोहके अपराधमें फॉसीकी सजा सुनायी गयी। कुछ समयतक उन्हे फैजाबादके कारागारमें भी रखा था। * किन्तु अब अग्रेज और मौलवीमें एक तरहसे यह चढाऊपरी शुरू हो गयी थी, कि कौन किसे फॉसी

  • स. ३३-मलेसन-खण्ड ५ पृ. ३७९; तथा गबिन्स

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