पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२९३

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अध्याय १० वा] २५१ [उपसहार कारियोका काम तमाम कर डाला ( अंग्रेजी स्त्रीपुरुप, उनके ध्वज और सत्ता सब कुछ ग्वालियरकी सीमाके पार खदेडकर ग्वालियर स्वतंत्र कर दिया गया ! इसके बाद क्रातिकारियोंने शिदेसे , अपना नेतृत्व करनेको कहा। बताया गया, कि अपनी सारी सेनाके साथ आगरा, कानपुर और दिल्लीके रापूर्म भारतीय स्वातव्य-समरमे हाथ बॅटाने शिदे आ जायें। किन्तु शिंदे वादे करता गया (और तोडता भी।) और सिपाहियोंको रोकता गया। मालम होता है, स्वय तात्या टोपे गुप्तरूपसे वहाँ पहुँचने " तक ग्वालियरकी सेना वहीं हाथपर हाथ धरे बैठी रहेगी। * और तभी तो आगरेके अंग्रेजोको अबभी आगा बंधी हुई है। आगरेमे रहनेवाला उत्तर पश्चिम सीमाप्रातका ले. गवर्नर कोलविन तो मौतके डरसे ' हर समय कॉपता रहता है। मेरठवाले बलवेके सवादसे बिगडे हुए सैनिकोंके सामने इसीने 'वफादारी' पर एक वक्तृता झाडी थी। क्षमाकी घोषणा भी इसीने की थी, किन्तु क्षमायाचना करनेवाला एक भी कायर सिपाही आगे तो न आया: उलटे, इस क्षमाकी घोषणाके प्रत्युत्तर स्वरूप 'सिपाहियोंने ५ जुलायी को आगरेही पर चदाई की! नीमच तथा नसीराबाद के विद्रोही भी आगरे पर चढ आये। तब बितौली और भरतपुरके नरेगोंकी 'राजभक्त ' सेनाको उनका मुकाबला करने रवाना किया गया। इन सैनिकोंने साफ बता दिया, कि " अग्रेजोंके विरुद्ध उठनेका हमारा विचार कभी ___* स ३५-शिन्देके लिए अपने राजको फिरसे स्वतत्र करनेका बहुत बढिया मौका था । वह केवल बागियोंके प्रस्तावको स्वीकार कर लेता तो अंग्रेजोसे बदला ले सकता। यदि वह बागियोंका नेता बनकर अपने मॅजे हुए मराठा सैनिकोंके साथ रणमैदानमें चल पडता, तो हम अग्रेजोंके लिए इसका परिणाम अत्यत हानिकर सिद्ध होता। इसके साथ कमसे कम २० सहस्र सैनिक, जिसमे आधे अंग्रेजोंसे पूरी सैनिक शिक्षा पाये हुए होंगे, हमारे कच्चे मोर्चोंपर टूट पडते । आगरा और लखनऊ एकदम ले लिए जाते । हॅवलॉक इलाहाबाद के किले में बंद हो जाता और या तो वह किला घेरा जाता, या उसे अलग रखकर, विद्रोही बनारसके रास्ते कलकत्तेपर जा पहुँचते-रेड पॅम्पलेट पृ. ९४१