पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२९५

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अध्याय १० वॉ] २५३ [उपसहार P - ~ Prnww- naaron सआदत खाँ नामक प्रतिष्ठित सरकारने रेसिडेन्सीकी गोरी सेनापर धावा बोलनेकी आज्ञा दी । उसने बताया कि महाराजा होलकरने उसे यह सूचना दी है। पर हिंदी सेनाको इस अनुरोधकी आवश्यकता ही न थी। उन्होने स्वाधीनताका झण्डा फहराया और तुरन्त रेसिडेन्सीपर धावा बोल दिया। यहाँके हिंदी सैनिकोंने अग्रेजोंके लिए अपने भाइयोपर बदूक ताननेसे साफ इनकार किया, जिससे अग्रेजोके छक्के छटे और वे इटौरको भाग गये । रेसिडेन्सीवाले हिंदी सनिकोने गोरोको जीवित रखना मान्य किया था और अन्ततक वे उनकी रक्षा करते रहे । अग्रेज अथकार हमेगा बडी छानवीन करते रहे है कि महाराजा होलकरका झुकाव अग्रेजोकी ओर था, या क्रातिकारियोकी ओर ? किन्तु १८५७ के इतिहास तथा उस समयकी स्थितिका बारीकीसे परीक्षण करनेवालेको पता चलेगा, कि बहुतेरे नरेगोंने इस दुलमुल नीतिका अवलयन किया था। मानवमात्रम स्वाधीनताकी इच्छा जन्मसे होती है । क्रातिकी हार न चाहनेसे उन्होंने अग्रेजोकी सहायता न की, जहाँ उनके इस डरसे, कि कहीं कभी अग्रेज क्रातिको दबाने में सफल हो जाय तो इनके राज या जागीरें जब्त करनेका एक बहाना मिल जायगा। उन्होंने क्रातिकारियोकी कुछ विशेष सहायता न की। बहुतेरे नरेश, कातिकी सफलताकी स्पष्ट सम्भावना दीख पडते ही, स्वाधीनताका झण्डा फहराना चाहते थे। , इस प्रकार उन्होंने अग्रेजोकी विजयका रास्ता साफ कर दिया ! उनकी अक्ल मारो गयी थी, वे इतना न समझ पाये, कि यदि वे क्रातिकारियोंके पक्षमे जाते तो अंग्रेजोको सफल होनेकी रच भी आगा न रह पाती, और यदि वे तटस्थ रहते तो, क्राति की सफलतामे सदेह पैदा हो जाता था। उस कठिन समयमे बहुतेरे हिदी नरेशोंकी ढुलमुल नीति का यही सच्चा विश्लपण है। जनता और सैनिक अग्रेजोंको रेसिडेन्सीसे निकल बाहर करते हों, तो भले करे ! इसका मतलब केवल इतनाही होगा कि सस्थानं स्वतत्र है। फिर भी, कही अग्रेज विजयी हो तो जो कुछ अपना है उसपर ऑच न आय इसलिए अग्रेजोंसे मित्रताका राग वे सदा अलापते रहे । यही रुझान, कच्छ, ग्वालियर, इदौर, बुदेलखण्ड, राजपूताना, आदि स्थानोंके नरेगोंने लिया था ।