पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३०४

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'प्रस्फोट] २६२ [द्वितीय खड इसी उदात्त प्रतिशोधका अंगार १८५७में भारतके हर सपूतके हृदयमें धधक रहा था। उनके सिंहासन चूर कर दिये गये थे; उनके राजमुकुट टुकडे टुकडे कर दिये गये थे; उनकी जागीरे जब्त कर ली गयी थी; उनकी सत्ता कौडी कीमतकी कर दी गयी थी; केवल तोडनेके लिए दिये हुए वचनोंसे उन्हे धोखा दिया गया था; और अपमानो और खुले अत्याचारोंमें तो तूफान आ गया था। लजास्पट मानखण्डनाकी गहरी गर्ता में लोग मुंहतक डूबे हुए थे। उन्हे अपने जीवनमें किसी प्रकारका कोई रस न था। जिस तरह याचनाओका कोई उपयोग न था, उसी तरह अर्जियों, प्राथनाओं, शिकायतों, विलापों या आक्रोशोका रत्तीभर उपयोग न था! ऐसे प्रसंगमें प्राकृतिक प्रतिक्रियासे 'बले' की कुलबुलाहट सुनायी पडने लगी। इतने अनगिनत पैशाचिक तथा जबरदस्तीके अन्यायोंके बोझसे हिंदुस्थान इतना दबोच गया था, कि हर अन्यायका 'बदला' लेना भी न्याय्य होता। इतनेपर भी भारतमें क्राति न होती तो फिर कहना पडता 'भारत मर चुका है। किन्तु क्रोधसे जलकर समूचा राष्ट्रही जब उठा, तब उस प्रकारके अविवेकी हत्याकाण्ड 'हिंदुस्थानके हर स्थानों में होने के बदले एक दो स्थानों में सीमित क्यों रहे, इसपर अचरज होता है। क्यों कि, इन हत्याकाण्डोंके कर्ताओंका प्रक्षुब्ध तर्कशास्त्र खडा सवाल करने लगा “ अन्यायपूर्ण दानवी शक्तिके दमनको उग्र शक्ति-प्रदर्शनही की आवश्यकता है।" काली नदीकी लडाईमें बदी सिपाहियोंको फॉसीपर लटकानेके पहले, पूछा गया था, कि अग्रेज औरतों और बच्चोंको उन्होंने क्योंकर मारा । फटसे सीधा जवाब मिला 'सापको मारकर उनके पिल्लोंको कौन खुला छोड देगा? कानपुरवाले सिपाही तो सदा कहते, कि अंगार कजलानेपर चिनगारीको चमकने देना, या साप मारकर उसके बच्चोंको छोड देना कहॉकी बुद्धिमानी है ?" कालीके सिपाहियोंके सीधे प्रश्नका उत्तर 'साहब' क्या देता? और मुंहतोड सवाल-जैसा कि अंग्रेज शिष्टताका दम भरकर कहते हैं-केवल भारतके प्रक्षुब्ध लोगोंने या एशियाई लोगोंने ही किया था, सो बात नहीं है । जहाँ जहाँ भी राष्ट्रव्यापी युद्धका प्रारम होता है, वहॉ राष्ट्रीय अपमानका बदला, हमेशा शत्रुराष्ट्रका खून बहाकर ही लिया जाता है। स्पेनवालोंने मूरोंसे जब अपनी स्वतत्रता