पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३०६

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प्रस्फोट] [द्वितीय खड उलटे, अचरजकी बात यह है, कि ऐसे क्रूर हत्याकाण्ड इतनी थोडी मात्रामें हुए, और इस भयकर प्रतिशोध-भावनाकी लपट देशभरमें स्थान स्थानपर सभीको अपने फैलावमें भस्म करती हुई क्योंकर न बढी ? अंग्रेजी अनियोंके पाशविक जुलमोंसे सारा हिंदुस्थान अंजरपजर होनेतक पेरा गया था। अर्थात् यह दशा जब पराकाष्ठाको पहुँची, तब भारतीय जनशक्तिने भी उस अन्याय और जुल्मको कसकर थापड मारी। उस प्रसगमें जो कल्ले हिसाब चुकानेके रूपमें हुई वे हदसे अधिक तो थी ही नहीं; उलटे यह दीख पडेगा, कि किसी भी राष्ट्रमे राष्ट्रीय अपराधोंके लिए जो टण्ड उस सष्ट्रसे, आक्रमक तथा पीडक राष्ट्रको, दिया जाता है उससे बहुतही कम मात्राम हुई थीं। कॉमवेलके कार्यकालमे हुए आयलडके हत्याकाण्डमें जिस क्रूर पातकोंका दायित्व समूचे इग्लिग राष्ट्रपर था, उतना प्रतिशोध, उतना रक्तपात और उतना उग्र दड, हिंदुस्थानने अपनेपर किये गये अत्याचारों तथा अन्यायोंका न्यायपूर्ण प्रतिकार करने के लिए १८५७ में, नहीं किया इस बातको मानना ही पडेगा। आयरिश लोगोंके करारे देशाभिमानसे क्रॉम्वेलके तनवदनमें कैसी आग लगती थी, उस अभागे देशमे उसने लहकी नदियों कैसे वहाई, अंचलमे पीनेवाले नन्होंके साथ असहाय औरतोंकी निष्ठुर हत्या कर उन्हें खूनके खातमें ही कैसे 'छोडा जाता था, राष्ट्र के लिए लड़नेवालोंही को नहीं, वेकसूर गरीब जनताको भी मूली गाजरकी तरह कैसे काटा गया और इस तरह देश जीतनेके पापी हेतुसे भयकर बदला, और उससे भी भयकर खून खरावी आदिसे क्रॉम्वेलके हाथ कैसे रंगे हुए थे, क्या, इसका विवरण इतिहास ही ने दिया नहीं है ? दूसरी ओर १८५७ में हिंदुस्थानमे नानासाहब, अवधकी वेगम, बहादुरशाह तथा लक्ष्मीबाईने प्रतिशोधके भयकर आवेगसे भान भूले सिपाहियोंके हथियारोंसे अग्रेजोंकी औरतों तथा उनके बच्चोंकी रक्षा करनेका उदात्त जतन अन्ततक किया। किन्तु कानपुरमें अपने पिता, भाई, बच्चे, पति आदिके प्राण बचानेवाले नानासाहबको उन्ही अंग्रेज औरतोने क्या पारितोषिक दिया ? यही, कि उन्हींका विश्वासघात कर खुफियाका काम किया! और जिन अंग्रेज अफसरोंके प्राण हिंदी लोगोंने बचाये थे, उन्हीं अंग्रेज अधिकारियोंने अपने उपकारकर्ताके उपकार कैसे चुकाये ?