पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३११

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अध्याय १० वॉ] २६९ [उपसहार ज्वालामुखीकी सतह अब फट रही है ! अब वह सौ जगह फटेगी! अ है ! यह क्या ? अब तो उसमें हजारो दरानें फटी है! और अब तो, शायद, प्रलयही होनेवाला है! __ काठियावाड मे कुछ स्थानोंमे एक अजीब जलप्रवाह होता है, जिसे 'विदारू' कहते है ? इस सोतेकी सतह खुर्दरी भूमिके समान दीख पड़ती है, जिससे अनजान आदमी वेखटके उस भूमिपरसे चलने लगता है। किन्तु एक दो डग बढते ही वह खुटुरी सतह हिलने लगती है, चलनेवाला अपने को सम्हालने के लिए अपना पैर मक्कम रखनेकी चेष्टा करता है। पर, तत्र भूमि गायन होती है, और विचारा यात्री पानीकी धाराम डूबने लगता है ? काति का सोता भी भारतभर में इसी विटारू' के समान गुप्तरूपसे फैला हुआ था। जुल्म और अन्याय, सतहके काले रगसे, निश्चयसे मानते थे, कि बिना चूंचा किए अन्याय सहनेवाला यह वही हमेगा का भूपष्ठ है। जुल्मी अन्याय ने उसपर पाव रखा नहीं, और काला भूपृष्ठ थर्राने लगा नहीं। तब जुल्मी अन्याय ने अपनी सत्ता के मदमें इस मायावी भूपठपर बलपूर्वक कदम रखा ! किन्तु सावधान ! भूपृष्ट गायव होकर वहाँ फेनिल, खौलता हुआ, तथा लहरें मारता हुआ खून का अथाह दह फैला पडा है | अभागे जुल्म और अन्याय ! चाहे जहाँ पाँच घर, कडा भूपुष्ठ तुझे कहीं महसूस न होगा। कमसे कम इतना तो अच्छी तरह तुझे जॅचना चाहिये, कि इस काली सतह के नीचे लालीलाल खूनकी धारा बह रही है ! और अब भी, हिम्मत हो तो, कान फाड देनेवाले ज्वालामुखीके विस्फोटका वह धडाका कान खोलकर सुन ले! खण्ड दूसरा समाप्त HUA