पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३१८

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अनिमलय] २७४ [तीसरा खंड - की प्रबल, टोलीने तथा यहाँ के अपना अल्लू सीधा करनेवाले लोगोंने असे बनाये रखा था। औसे सिहासनपर थोडे ही बहादुरशाह को बिठाया गया था। छि. असम्भव ! क्यों कि, जैसे सिंहासन जीते जाते हैं, यों ही दान में नहीं मिलते। और फिर से मुगल राज प्रस्थापित करना तो आत्मघात का काम होता । क्यों कि, तीन चार सदियों में जिन सैंकडों हिंदु हुतात्माओं तथा अन्य वीरों का रक्त बहा, वह फिर बेकार सिद्ध हो जाता । भिस्लाम की अदयोन्मुख शक्ति अरव देश के रेगिस्तान से बाहर चली तब से असे और कहीं भी प्रतिकार न हुआ, पूरब और पश्चिम में बेरोक देश पर देश जीतती चली जाती थी। अनेक देश तथा जनसंघों मे अिस्लाम की अिस आक्रमक शक्ति के पाँव पकडे और शरण मांगा । किन्तु अबतक बेरोकटोक बढनेवाली अिस्लामी लहर को जीवट, आग्रह तथा निभाक धीरज से सबसे पहले भारत ही में प्रतिबंध हुआ, जिसका जोड अन्य देशों के अितिहास में नहीं है ! यह झगडा पाच सदियोंसे अधिक चलता रहा। अपने प्राकृतिक अधिकारों पर हु विदेशी आक्रमण के विरोध में पाच सदियों तक हिंदु सभ्यताने प्रतिकारका झगडा किया 1 पृथ्वीराज की मृत्यु से ठेठ औरंगजेब की मौत तक यह लडाअी अविराम जारी रही। अिस प्रकार यह रक्तलांछित लडाी लगा तार चल रही थी। तब भारत के पश्चिमी पहाडों से मिस हिंदु जाति के गौरव के लिओ खेत रहे अनगिनत वीरोंकी साधना की पूर्ति के लिओ एक हिंदुशक्ति खडी हुी। पुणे नगर से हिंदु पेशवा श्री सदाशिवराव भाभ प्रबल सेना के साथ चल पड़े और अन्होंने दिल्ली के मुगली तख्त की धज्जियाँ अडाकर हिंदु सभ्यता की श्रेष्ठता प्रस्थापित की और आज तक के अन्याय का बदला लिया। विजेता ही को जीतने से हिंदुस्थान फिर से स्वतंत्र हुआ और गुलामी तथा हार के गहरे गढे काँटे को अखाडने से हिंदुस्थान हिंदुओं का बन गया। और अिसी से भारतीय सिंहासन पर बहादुरशाह को बिठाने में मुगल सत्ता की फिर से स्थापना न थी। हिंदु-मुसलमानों का वह कदीमी झगडा