पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३१९

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अध्याय १ ला] २७५ [दिल्ली का सग्राम अब नष्ट हो चुका था। जनता की अिच्छा-आकांक्षा को ठुकरा कर-और अिसीसे अन्यायपूर्ण-चलनेवाला राज समाप्त हो चुका था। और राष्ट्र की जनता को पूरा अधिकार था कि अपनी मिच्छासे अपना सम्राट चुने। यही बहादुरशाइ के सम्राट पद का रहस्य था । क्यों कि, हिंदु और मुसलमानों, नागरिकों तथा सैनिकों ने-सारी जनता ने-अपनी अिच्छा से बहादुरशाह को स्वातव्यसमर के नेता तथा सम्राट चुना था। जिस से ११ मी को सिंहासन पर विराजमान आदरणीय बूढा बहादुरशाह कोसी अकबर या औरंगजेब के पुराने परंपरागत सिंहासन पर चढा मुगल न था; वह तो विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध स्वाधीनता के लिअ झूमनेवाली जनता का अपनी अिच्छा से चुना सम्राट् था। और अिसी लिसे भारत के प्रमुख नगरों, अनेक सेना-विभागों और राजा. महाराजाओं से दिल्ली के सम्राट् पर अभिनदनों की बौछार हुभी। विप्लवकारी पंजान, अवध, नीमच, रुहेलखण्ड तथा अन्य स्थान के सैनिक विभागों ने अपने ध्वज आदि चिन्हों के साथ आ कर सब से सम्मानित क्राति नेता वहादुर शाह के सिंहासन के चरणों में अपनी नम्र सेवा अर्पित की। कितनी ही पलटनों ने, दिली के मार्ग पर चलते हुमे, लूटा हुआ अग्रेजी खजाने का धन, सिमानदारी से, दिल्ली के सम्राट के कोष में भर दिया । असी समय, यह घोषणा की गयी है, कि फिरंगी सत्ता का अन्त होकर सारा देश दास्यमुक्त, स्वाधीन बना है। जिसी घोषणा में यह चेतावनी भी दी गयी थी 'प्रारभ ही से असाधारण यश को प्राप्त करनेवाले अिस क्राति का अन्त यशपूर्ण बनाने के लिअ हरक को चाहिये कि वह मानवता के योग्य प्रतिकार करने को सिद्ध रहे।' साथ साथ यह भी जताया गया था, कि 'मिस स्वाधीनता संग्राम में लडना इरक का पवित्रतम कर्तव्य है और जनता उसमें करारी धर्मनिष्टा तथा कठोर निश्चय के साथ हाथ बॅटावे । हम अक मात्र लालच दे सकते हैं और वह है धर्म ! जिस किसी को परमात्माने मनौधैर्य तथा अिच्छा दी है, वह जीवन तथा संपत्ति को त्याग कर अपने पवित्र धर्म की रक्षा के काम में इमारे साथ आवे! जनमंगल के लिअ जनता अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पर पानी छोड दे, तो अग्रेन तुरन्त अिस देश से निकाल बाहर कर दिये जा सकते हैं।