पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३२७

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अध्याय १ ला] २८३ [दिल्ली का संग्राम ma निस भूमि को अस समय अन्हों ने जुम्हाला था असे बनाये रखने में अन की नाको दम था। पंजाब से नयी कुमुक मिलने तक आक्रमक चढाी करना असम्भव बन गया था और, मानो, अिन विपत्तियों को पूर्ण करने को-आज २३ जून १८५७ का दिन निकला। __२३ जून १८५७ पलासी की शतसवत्सरी का दिन । सौ वर्ष पहले, अिसी दिन, साम्राज्य के जुओ में, पलासी के रणमैदान पर, हिंदुस्थान का पासा अलटा पड़ा था। पहले के अपमान तथा लज्जा में इरसाल नयी बढोतरी होते होते सौ साल बीत गये। सौ वर्षों की गुलामी का हिसाब चुकाना, और रक्त की नदियाँ बहाकर सारे राष्ट्रीय अपमानों अब दासताकी कालिख को धो डालना यही विचार-यही अक मात्र भीषण लालसा-दिल्ली के सिपाहियों की आंखों में भुस दिन चमक रही थी। पवन के हर झोंके, सूरज की हर किरण, तोप की प्रत्येक गडगडाहट, तलवार की प्रत्येक झनकार में 'पलासी! पलासी का प्रतिशोध' यही गंभीर धरघराहट सुनायी देती थी। पलासी के दुर्भागी रणसग्राम की शतसंवत्सरी का आगमन प्रभातकाल ने सुचित करते ही, कातिकारी सेना के दस्ते अक अक कर के लाहौरी दरवाजे पर पहुंचने लगे। अंग्रेज भी जानते थे कि आज अन्हे खूब रगडा जायगा, वे भी सिद्ध थे, सूर्योदय के पहले ही न्यूइ-रचना पूरी की थी। साथ साथ अिस विपत्ति के स्मरणसे पंजाब से भी सहायता मॅगवा चुके थे और अंग्रेजों के सौभाग्य से अगली ही रात को कुछ सेना आ भी पहुंची थी। पजाबी सेना के आगमन से अग्रेजों में आत्मविश्वास फूल गया। किन्तु शत्रुको कुमक पहुंची है जिस समाचार से, या अंग्रेजों की पिछाडी को पहुंचानेवाले सभी पल उन्हों ने अडा दिये देखकर, क्रांतिकारियों का उत्साह रंच भी कम होने की सम्भावना न थी। सब्जी मण्डी से होकर अन्होंने अंग्रेजों पर गोलियां बरसाना शुरू किया । ब्रिटिश पैदल सैनिकों ने बार बार हमले किये, किन्तु हरवार क्रांतिकारी उन्हे पीटकर भगा देते । परकोटे की तोपें खूब आग झुगल रही थीं। हिंदुराव की कोठी' पर भी क्रांतिकारियों का पूरा ध्यान था। दोपहर १२ बजे लडाजी घोर घमासान हो रही थी। पजाबी, गोरखा और गोरे सैनिकों पर क्रांतिकारी इमलेपर हमले कर