पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३२९

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अध्याय १ ला] २८५ [दिल्ली का संग्राम aamwww manwww हर दिन दोनों ओर नये सैनिकों की बढोतरी शेती रहती थी। पंजाबसे लगातार कमक आनेसे अंग्रेजों की भोर ७ हजार सैनिक हु। अिधर क्रांतिकारियों के पक्ष में रुहेलखण्ड के विप्लवकारी सैनिक बख्तखों के नेतृत्वमें अभी दिल्ली में आ पहुंचे थे। लॉर्ड रॉबर्टस् कहता है, “रुहेलखण्डवाली सेना नावों का पुल लाघकर कलकतिया द्वारसे दिल्ली में आयी। हाथ के रगबिरगे ध्वजो को हवामें फेंकते हुगे, रणगीतों के तालपर अत्यंत अनुशासनपूर्वक चलनेवाले ये हजारों सिपाही जब दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे तो हमे वह दृश्य 'रिज से स्पष्ट दिख पडता था।" अिन सभी भिन्न भिन्न दस्तों को दिल्ली में अिकहा कर कुछ संगठन पैदा करनेवाली अकमेव शक्ति थी-सिद्धांत का प्रेम । बिना अिस के भिन्न भिन्न जाति तथा पथवाले और तबतक अक दूसरे का मुंहतक न देखे हुमे, अक तूफान के कारण भाग्य से अकत्रित हुओ अिन हजारों सिपाहियों में जो थोडासा संगठन रहा वह न रह पाता। सम्राट् तथा दरबारियों के, दिल्ली में लूटमार तथा अराजक रोकनेका, तनतोड जतन करने पर भी चोरी, लूटमार आदि होने तथा अनमें सिपाहियों का हाथ होने की शिकायतें हर दिन माया करतीं। जैसी दशा में, अिन ,परस्पर विरोधी कमी भिन्नभिन्न शक्तियों को अकसूत्र में पिरोनेवाले किसी चतर नेता की अत्यंत आवश्यकता थी। क्रांति की धूमधाम में कुछ लोगों की दुष्ट प्रवृत्ति तथा अच्छृखलता, दिल्ली में अमड आना स्वाभाविक था, किन्तु असी दशा में भी अंग्रेजी सेनापर लगातार हमले हो सकते थे; कमसे, कम, अग्रेजों की प्रगति को रोक झुन्हे डरा देने का काम तो अवश्य हुआ था। यह कैसे सम्भव हुआ ? अिस का अकमात्र कारण है, नागरिका तथा सैनिकों में, विदेशी शत्रु को भारत के बाहर भगा देने की, मबल अमगें लहरें मार रही थीं। किन्तु अन्तिम सफलता की निश्चिती की दृष्टि से अमूर्त सिद्धान्तपर जनता की यह निष्ठा तथा प्रेम किसी महान् मूर्त व्यक्ति में नेता के रूप में प्रत्यक्ष होना अत्यंत अनिवार्य था। जिस दशा में देव की देन के समान रुहेलखण्ड से बख्तखॉ अपनी सेना तथा खजाने के साथ दिल्ली में आ पहुंचा । बख्तखा के पहुंचने के समय दिल्ली की जनता की क्या मनोगति थी जिस का बदिया वर्णन अस समय के दिली के.