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१८५७ का

भारतीय स्वातंत्र्य-समर

प्रथम खंड

ज्वा ला मु खी अध्याय १ ला

स्वधर्म और स्वराज्य

एक अनपढ देहाती भी इस बातको समझता है, कि एक मडैया भी बनानी हो तो वह कच्ची नीवपर कभी खडी नहीं हो सकती। १८५७ मे हुइ क्राति का इतिहास-लिखने का दम भरनेवाले इतिहास लेखक जत्र उपयुक्त मामूली सिद्धान्त की ओर ध्यान न देकर, क्रांति के सच्चे कारणो की छानबीन न करते हुए ही वेधडक प्रतिपादन करते है, कि इस क्रांतिमंदिर की भव्य रचाई मात्र एक तिनके पर हुई है, तब या तो वे मूर्ख है अथवा, जो अधिक संभव है, वे जानबूझकर अपने को तथा दूसरों को धोखा दे रहे हैं। चाहे जो हो, इतनी बात निर्विवाद्य है कि इतिहास-लेखकके पवित्र कार्य के लिये वे पूर्णतया अपात्र है।