पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३४५

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अध्याय २ स] ३०१ [हॅवलॉक मत्सर के कारण अग्रेजों के कार्य में किसी तरह की वाया न पडे. अिस लिओ कानपुर की रक्षा के लिअ नील वहॉ रहा; और लखन की सहायता के लिजे जानेवाली सेना का नेतृत्व स्वीकार कर हवलांक अवध को चल दिया । कान. पुर की सुरक्षा की नील ने नयी योजना बनायी। अछतों की एक पलटन बना कर कानपुर की रक्षा का भार अन्हें सौप दिया । अछूतों को स्पृश्यों के विरुद्ध उभाढने की यह चाल वडी कामयाब रही। हिंदु-मुसल. मानों का धार्मिक वैर अव नष्ट हो चुका था तब छत-अछूतों का यह नया झगडा खडा कर दिया गया। कानपुर की हार के बाद नानासाहब पेशवा ब्रह्मावर्त छोडे अपनी सेना और खजाने के साथ गंगापार हुआ फतहगढ में पहले जा सके। हॅवलॉक की नेतृत्व में जानेवाली अंग्रेज सेना को नानासाहब की गतिविधि का सुराग न मिलने से वह सीधी लखन गयी। जन के अन्त तक सारा अवध प्रांत तो क्रांतिकारी भीडों का छसा बन गया था। जिस दशा में हेनी लॉरेन्स को राहत दे कर लखन का घेरा अठाना अति कठिण काम था। फिर भी विजय की अन्माद की धुन में विलॉक मानता था कि गगापार हो कर लखनअ की मुक्तता करना असके बाों हाथ का खेल है। जिस तरह पंजाबवाली सेना मानती थी 'वस, दिली पर हमारी नजर पड़ी और दिल्ली जीती, असी तरह हॅवलॉक की सेना भी अिस मस्ती में थी, कि 'गंगापार होने ही लखन का काम तमाम करेंगे' कानपुर से लखनौ कुछ दूर नहीं है। और अिलाहाबाद से कानपुर चढ आते समय हॅवलॉक ने जो फुर्ती और टेक दिखाी थी अस हिसाबसे अितना . महान् साहस दिखाने की प्रेरणा असे हो आना ठीक ही था। किन्तु अवध प्रांत में मेक चप्या भूमि असी न थी, जहाँ राष्ट्रीय क्रांति की ज्वाला भडक न झुठी हो। भारत में पहले पहल विद्रोह करनेवाले पुरत्रियो का, अवध तो झूला होने से अनके मॉबाप, बालबच्चे, नातेदार सबके सब अपनी झोंपडियों या मकानों में क्रांतिभाव से भर गये थे। फिर भी विजय से अन्मत्त बने अिस अंग्रेज सेनापति को वह अक नगण्य बात थी। असे घमण्ड था, 'वस, वहाँ