पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अनिमलय] ३१० [तीसरा खंड क्रमशील तथा प्राचीन नामी राजपूत कुल का सपूत यह स्वराज का नेता अपने कुंवरसिंह नामसे अस कुलकी कीर्ति बढा रहा था। शाहाबाद के विस्तृत भू प्रदेशपर अिस वंश का प्रभुत्व युग युगसे अखण्ड चल रहा था, जिससे जनतामें मिस पुरातन राजवंश के लिये स्वाभाविक ही अपनौवा तथा प्रेम था। बड़े बड़े साम्राज्य के बवडर भारतमें अठे और शान्त हुभे; किन्तु अिस हेरफेर में भी यह प्रदेश परोपकारी, दानी राजपूत राजाओं के छचतले स्वातंत्र्य और स्वराज में सुखी था । सैंकडों अराजों के झंझाओं में कुंवरसिंह के समवंश का बरगद धूप, पवन, ठंढ के आघातों को अपनी चोटीपर सह करभी, अपने पत्तों तथा शाखाओं में घासले बनाकर रहनेवाले निरीह पंछिओं की रक्षा तथा पोषण करते हुमे अटल खडा था। यह राजवंश अपनी प्रजा को पुत्र के समान प्यार करता था और अनकी प्रजाभी अपने राजा को प्रभु का प्रतिनिधि मान कर पूजती थी। किन्तु विदेशी अत्याचारी सत्ताधीशों की आँखों में, ये आपसी प्रेम तथा पूज्यभाव के संबंध, कॉटे के समान खटकते थे; अिसी से 'अन्हों ने अिस राजवंश को मटिया मेट करने की ठानी। सहसा स्वराज का छत्र फट गया और सारा प्रदेश असहाय हो गया । बरगद पर ही निर्दयी गाज गिरने से आसरा टूटे पंछी चीखते हुमे अिधर अधर घूमने लगे। और जिस अपने राजवंश तथा भारतपर हु अन्यायों का बदला लेने के विचारों जगदीशपूर के अपने राजमहाल की बारहदारीमें यह बूढा युवक कुँवरसिंह अपनी मूंछों में बल देते हुअ खडा था। बूढा युवक ! हॉ, सचमुच ही आयु से बूढा होनेपर भी नौजवान-सा. दीख पड़ता था। लगभग अस्सी धूपकाल असके सिर से गुजर चुके थे, फिर भी अस के हृदय की वीरामि ज्यों कि त्यों प्रज्वलित थी; अस की भुजाओं के स्नायओं में अब भी नरसडों की माला गूंथने की सामर्थ्य फडक रही थी! ८० वर्ष का कुँवर और फिर सिंह ! अंग्रेज अिस देश को लूटते जायें और यह देखता रहे ? असम्भव ! अवध का राज डलहौसी के हडप जानेपर स्थान स्थानपर खोदकर तथा टीलों को तोडकर भारतभर को समथल करने के काम में अंग्रेज लमे हुबे थे। और अिस घधे में कुँवरसिंह का राज भी पिसा गया। जिस