पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३५९

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अध्याय ३ रा] ३१५ । [विहार दसों दिशाओं से गोलियों की बौछारें होने लगी । अबरामी की डाली डाली से बंदूकें तनी हुभी थीं और वे भी फिरगीपर निशाना ताक रही थीं ! कहीं कुंवरसिंह तो नहीं आया ? अंग्रेज आये तो लडने, पर किस के साथ ? शत्रु का अक भी मानव दीख नहीं पड़ता। अबरामीमें, रात के भीषण अधकार में गढहों में, टीलोपर, चहूँ ओर कुंवरसिंह के सैनिक छिपे हुआ थे, किन्तु अकभी दीख न पडता था। आकाशमें तारका और भूमिपर पेंड, बस, और कुछ भी नजर नहीं आता और अिन दोनॉपर बदूके दागनेसे विजय की सम्भावना थी नहीं ! वायुदेवता का प्रकोप; और कहीं से सॉय सॉय करती गोलियों की गरम बौछार हुमी । अग्रेजों के गणवेश (यनिफॉर्म ) सफेद होने से तुरन्त दीख पडते, किन्तु कुँवरसिंह के सैनिक 'काले', अनकी वादियाँ काली और अंधेरा भी काला ! जिस तरह सब 'कालों ने षडयन करनेपर अग्रेज अपने सफेद पैर कैसे जमा सकेंगे १ गोरे भागने लगे, साथमें अनके सिक्ख पिडू भी भागने लगे। कमांडर डनबार तो पहले ही ढेर हो गया। जी बचाने के लिमे भागते हु गोरे मेक खामी के पास पहुंचे, जहाँ अन्होंने कुछ समय तक टिकनेका जनत किया । किन्तु सबरे तक केवल मतों ही को नहीं, घायलों को भी खेत में छोडकर, भूखे प्यासे, लहूलुहान, लज्जासे मुँह लटकाये अग्रेज सैनिक सोन की दिशामें भाग खड़े हुआ। किन्तु कुँवरसिह के चंगुलसे छट जाना जितनी सरल बात न थी। पग पगपर खून सींचा गया । भाले के घोंपनेसे लहूलुहान जंगली सुअर हैरान हो कर मार्गपर लहू टपकाता हुआ आखिर में भागता है, ठीक वही दशा सोनतक पहुंचते पहुंचते अग्रेजों की हुी। किन्तु सोनपर तो अनकी दुर्दशा की इद हो गयी। पहले अनकी किश्तियाँ ही गायब । खोज करने पर पता चला कि वे बालू में फंसी है; और जो खुली थीं अनमें 'पांडे वालोंने आग लगा दी थी। निदान, दो नावें मिलीं। सोनके परले किनारे दानापुर के गोरे, महान् विजय प्राप्त कर आरा के मुक्त किये गोरों कों साथ लिओ, रणगातों को गाते अपने सैनिक लौट आयेंगे मिस आशा ,