पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३६०

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अग्निप्रलय] ३१६ [ तीसरा खंड ऑख बिछाये खडे थे। नावे दीख पड़ीं; किन्तु हाय ! आनंद की सेक भी पुकार या नारा न सुनायी दिया। न झण्डा, न रणगीत, सब मुंह लटकाये। अिघर किनारेवालों की बेचैनी बढी; हृदय धकधक करने लगे, मेरा बेटा, मेरा भाभी, मेरे स्वामी, मेरे बाबूजी- हाय जैसी बुरी कल्पना, प्रभु करे, न आय-कलही तो विजय की बड़ी आशा बाँध कर गये थे-किन्तु यह प्रार्थना आकाशस्थ पिता के पास पहुंच न पायी थी कि दानापुर के अभागे सैनिकों ने घाटपर पॉव रखा और तुरन्त बिजली के समान समाचार फैला " ४५० गये थे; केवल ५० कुंवरसिंह के चंगुल से बचकर, यहाँ पहुँच पाये थे।" मेक अंग्रेज लिखता है: अस दिन, हृदय दहलानेवाला अग्रेज स्त्रियों का करुण विलाप जिस ने सुना है, जीवनभर असे वह भूल न पायगा । कुछ अक आर्त आक्रोश कर अपनी छाती पीठ रही थीं, कुछ मेक ढारें मारकर रोतीं और अपने बाल नोंचती थीं। अिन अभागिनियों के सामने अस समय, अिस सत्यानाश का अत्तरदायी, जनरल लॉमिड होता तो, निस्संदेइ वे सब अस को कत्ल कर देतीं।" अिघर दानापुर की गोरी मेमों के आक्रोश से कुहराम मचा हुआ था, अधर मेजर आयर अंग्रेजों की हार तथा हानि का बदला लेने के लिओ आरा पर जा रहा था। डनवार की बुरी हार की खबर असे अबतक न मिली थी; धेरे हुओ अंग्रेजों को छुडाने वह वेग से चल पडा था। कुंवरसिह के सैनिक २९ तथा ३० जुलाओ को डनबार को इराकर लौट रहे थे, तब आयर के आरे पर चढ आने की खबर मिली । अक क्षण भी न गवाते हुओ अस वृद्ध सेनापति ने अपनी सेना की व्यूहरचना की। मार्ग के सभी नाकों के मोर्चे बांध कर २ अगस्त को बीबीगंज के पास आखरी लढाी हुी। हर ओक दल पास के घनघोर जंगल का आसरा पाने का जतन कर रहा था। बुढापे और तरुणाी के अस मुठभेड में बुढापे ने ही विजय पायी, आयर के मनसूबे चूर चूर हो गये; तब असने तोपों का धडाका शुरू किया। अस के पास तीन बढिया तोपें थीं जिन के बूतेपर असने कुंवरसिंह को पीछे धकेलना शुरु किया। क्रांतिकारियोंने