पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३६७

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अध्याग ४ था [दिली का पतन समान अंग्रेजी सेना भी घिरी हुी थी। जिस से दिल्ली की दक्षिण में क्या हो रहा है, कलकत्त से भेजी हुी सेना अबतक आ पहुंची या नहीं, लखन, कानपूर, बनारस का क्या हाल है मिस का कोभी पता अग्रेजों को न था। सर व्हीलर तो मारा गया था। अम के मेक महीने वाद अंग्रेजों को विश्वस्त सूत्र में पता चला कि व्हीलर अन की सहायता के लिअ बड़े वेग के साथ आ रहा है। कलकत्ते से किमी प्रकार की सहायता पाने का लन्छन न दिखता था, जिस से सारा जोर पजाब पर श था । किन्त सब संकटों के बीच गोरे तथा सिक्ख सैनिकों के दस्ते सर जॉन लॉरेन्स भेजता ही रहता था। अिस बार भी, घेरे के काम में उपयुक्त दतों तथा मन्य दस्तों को भेज देने की नयी पार्थना को न टाल कर अपने निकल्सन् के आधिपत्य में दो सहस्र सैनिकों को रवाना किया । अन के दिल्ली पहुंचतेही हर मेक मुख आनंद, आशा, और अत्साह से चमकने लगे। सैनिकों की संख्या से, सेनापति निकल्सन का आना अधिक उत्साहवर्धक था। सेनापति निकल्सन हजारों सैनिकों के बराबर था। निराशा से गडे हुमे अग्रेजों के सैनिकों में हर ओक यही कहता, 'बस, अब निकलसन आया; अब विजय निश्चित है!" अंग्रेजों को सुयोग्य सेनानी मिल जाने से विजय के बारे में सभी संदेह समाप्त हो गये । अिस के ठीक अलटे, क्रांतिकारी सेना को कोजी सुयोग्य नेता ही न मिलने से विनय की आशा दिनोदिन गलती जाती थी। सम्राट बहादुरशाह को, जनता ने पुराने सिंहासन पर बिठाया था; शान्तिकाल में सराहनीय दया, क्षमा आदि गुण असमें अवश्य थे। किन्तु युद्ध के बारे में अमे कोी अनुभव न था, सेनापति के स्थान के लिअ वह योग्य न था । दिल्ली में शूर सैनिकों की कमी न थीं। अंग्रेजों की नौकरीमें रहते जिन्हों ने गोरे के भी कान वीरता में काटे थे, जिन की सैनिक शिक्षा तथा अनुशासन अग्रेज अफसरों की ही निगरानी में पूर्ण हुसे थे, जिन की वीरता के कारण ही अंग्रेज अफगानिस्तान २१