पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३७१

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अध्याय ४ था] ३२५ [दिली का पतन वह वीरता, वह पराक्रम व्यर्थ हुआ | बंदेल-की-सराय के बाद जैसी हार क्रांतिकारियों को कभी न खानी पड़ी थी। नीमच की सारी पलटन अस दिन खेत रही। अपने ही मत से चुने अपने ही सेना- पति की आज्ञा अइंकार से ठुकराने का यह परिणाम था। बिना अनुशासन की वीरता कायरता के समान ही व्यर्थ होता है। २५ अगस्त की अिस विजय से अग्रेजों के हृदयाकाश में जमे निराशा के मेघ साफ छंट गये। जन से लेकर आज तक यह अनकी पहली ही विजय थी। दिल्ली पर टूट पड़ने के लिझे हर अक अब आतुर था। विलसन ने दिल्ली के आखरी हमले की योजना बनाने का काम बेर्डस्मिथ को सौपा। जिस के आग्रह से घेरा अठा जाने की सोचनेवाली गोरी सेना दिल्ली में टिकी रह सकी, असी बेर्डस्मिथ ने सिपह सालार की आज्ञा के अनुसार आखरी चढाी की रूपरेखा बनायी। पंजाब से खास आयी सेना तथा तोपखाना अग्रेजी पडाव में सुरक्षित पहुंच गये थे। अग्रेज सेनापति ने सब सैनिकों को आवेशपूर्ण आदेश यों दिया :-"आज तीन महिने, तीन सेनापतियों की सैनिक चतुरता की दाल न गली और दिल्ली स्वतंत्र बनी रह पायी। आज दिली की ओंट से आँट बजाकर तुम अपने जतन को जश का मुकुट पहना कर ही रहोगे यह स्पष्ट दीख पडता है।" र वहॉ की अंग्रेजी सेना में ३५०० गोरे, ५००० पंजाबी सिक्ख तथा २५०० कश्मीरी सैनिक थे। अिन ११००० सैनिकों की दिल्ली जीतने के काम में सहायता देनेके लिये अपने सैकडो सैनिकों को लेकर जींद नरेश स्वयं अपस्थित रहा। सितबर के पूर्वार्ध में अंग्रेज सेनापतिने चढाभी की नीति- पर चल कर मोर्चेबदी का काम जारी किया। मिस से दिली के सैनिकों में घबडाहट पैदा हुी। दिल्ली के परकोटे के परे अग्रेज सेना धीरज से तथा अनुशासन-पूर्वक चढाभी कर रही थी, जहाँ हिंदी सेना में अव्यवस्था, अराजक, तथा आशाभग का दौरदौरा था। अंग्रेजी सेना के हिंदी सैनिक मोर्चे बाँधने का काम जीवट तथा अत्साह से कर रहे थे; दिल्ली के तोपखाने की पर्वाह