पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३८८

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अग्निपलया ३४४ [तीसरा खंड तरह झपटकर अन्तिम सॉसतक झूझनेवाले अिन क्रांतिकारियों के छायाचित्र (फोटो) स्वयं अंग्रेजों ही ने अतारे । १८ अगस्त को और अक बार क्रांतिकारियोंने अंग्रेजों पर हमला किया। अिस दिन भी सदा के समान सुरंग से किल्ले में बड़ा छेद किया और क्रांतिकारी अंदर घुसे । मलेसन लिखता है, " अन से अक अच्छा अधिकारी मेक दम में छेद की चोट पर जा पहुंचा और अपनी तलवार के अिशारे से अपने अनुयायियों को बुलाना चाहा, किन्तु कोी आय असके पहले ही अक गोली लगकर नीचे गिर गया । तुरन्त असकी जगहपर दूसरा आ खडा हो गया; वह भी क्षणभर में ढेर हो गया; आदि। अपर्युक्त तीन लोगों की जो वीरता फिरगियोंने भी सराही वह निकलसन की दिल्ली की बहादरी के जोड की थी । किन्तु क्रांतिकारियों का यह शौर्य अन के कायर अनुयायियों के कारण विफल हुआ। अपने तीन बहादुर नेताओं को गिरते देख तेहा आकर आगे दौडने के बदले, हजारों लोगों को पीछे हटनाही चतुरता जान पडी { अिस लज्जास्पद प्रसंग से हम क्या पाठ सीखें ? हॉ, तो अिन सदा की मुठभेडों से ही सब कुछ समाप्त न होता था। क्यों कि, देशद्रोही हिंदियों की पूरी सहायता मिलने पर भी क्रांतिकारियों के दिन रात गोले फकनेवाली तोपों तथा बंदूकों के सामने टिके रहना असम्भवसा होने की बात अग्रेजों को जॅच गयी थी। अंगद फिर लखना कुशल से पहुँच गया । अपना वचन पूरा करने के लिओ क्लिॉक 'कहाँ तक बढ़ आया है। आदि जानकारी पूछने को अत्सुक सेनापति के हाथ अंगदने हॅवलॉक का पत्र रखा, “ कम से कम और २५ दिन तक मैं लखन नहीं पहुंच पाऊँगा।" पत्र समाप्त था। आँखें बिछाये किसी की राह देखी जाय ओर फिर ठीक निराशा पछे पडे जिससे बढकर यत्रणा देनेवाली और क्या बात हो सकती है ? मौत की राह देखती घायल या अजर-पंजर बनी में ही नहीं, बल्कि अंग्रेज सोजीर और अफसर की घबड़ाये, इताश और दुखी हुआ। समूची अंग्रेजी सेना पर काल की छाया फैली मालूम होती थी। खाद्य पदार्थों की भयंकर महंगी से सब का