पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४०

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ज्वालामुखी] [प्रथम खड ammam जिस मात्रा में प्रक्ट हुई उस मात्रा में, शायद ही कहीं मिल पाती है . विदेशी और पक्षांध इतिहासकारोंने अपनी इस महाप्रतापी भूमि का चाहे जितना घृणास्पद चित्र बनाने का जतन किया हो, किन्तु जबतक इतिहास के - पन्नों से चित्तौड का नाम नष्ट नहीं होता, और जब तक उनपर प्रतापादित्य वथा गुरु गोविंदसिंग का नाम अमिट अंकित है तबतक हिंदुस्थान के सपूतों के अस्थि अस्थि में और मज्जा मज्जामं यह स्वराज्यप्रेम तथा स्वधर्मप्रेम गहरा ही गहरा भिदा हुआ नजर आयगा! पराधीनता के गाढे कुहरेम वह कुछ समय के लिए भलेही धुधला हो जाय-सूरज भी कभी मेघांसे ढक जाता है-किन्तु उस स्वयसिद्ध सिद्धान्त की दमक्ती आमा जब जगमगा उठती है तब सब कुहरा छंट जाता है, मेघ तितर बितर हो जाते हैं। थोड़े मे, स्वधर्म और स्वराज्य के परपरागत महान् सुदर सिद्धान्तो का वायुवेग से प्रमार होने को १८५७ में जो कारणों का सिलसिला बन पडा उसका सानी और किसी स्थानम शायद ही नजर आया है। इसी सिलसिलेने हिंदुस्थान की कुछ सुप्त भावनाओं को विचित्र तरहसे भडकायो और स्वधर्म तथा स्वराज्य के लिय युद्ध करने की सिद्धता में लोग लग गये। स्वराज्यस्थापनाके घोषणापत्रमे दिल्ली का बादशाह कहता है " भारतके सुपुत्रो ! यदि हम ठान लें तो बहुत जल्ट शत्रओं को मटियामेट कर देगे। गनुओंको मिटा कर हम हमारे प्राणों में भी प्यारे स्वधर्म तथा स्वराज्य को निर्भय कर छोडेंगे!" इम अंतिम वाक्य में सूचित उदात्त सिद्धान्तों के लिये यह युद्ध लडा गया. इस कातियुद्धसे अधिक पवित्र युद्ध ससार भरम और कहाँ पायेंगे? . 'देश और धर्मकी रक्षादिल्लीके सिहासनसे घोषित स्पष्ट, शुद्ध तथा महान् स्फूर्तिशील शब्दसमूहहीम १८५७की ऋतिका बीज समाया हुआ है। बरेली के घोषणापत्रम बादशाह कहता है "भारतके हिंदुमुसलमानो! उठो! भाइयो उठो! परमात्माके सभी वरदानाम, स्वराज्यही उसका दिया हुआ सर्वोत्तम वरदान ___ * लेकीकृत ' फिक्शन्स एक्सपोज्ड अन्ड, उर्दू वर्क्स,