पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४०३

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अध्याय ५ वा ] . '३६१ । लखन २००० क्रांतिवीरों की लाशें फडक रहीं थीं; कहा जाता है कि वहाँ की रक्षा करनेवालों में से केवल चार बचे थे-अिसमें भी संदेह है।* सिकंदर बाग में स्वाधीनता के लिये खेत रहे दो सहस हुतात्माओ ! यह कृतज्ञ आितिहासरचना तुम्हारी वीरस्मृति को समर्पण! दो. सहस्र देशभक्तों का लहू ! यह श्रितिहास असी की मनुहार ! स्वदेश के लिओ युद्ध करने को सिद्ध वीरो, तुम कहाँ के, कौन ! तुम्हारे नाम ? साधना की अज्ज्वल ज्योति तुम्हारे हृदय में जाग अठने पर 'तुम्हारा -नेतृत्व करनेवाला कौन वीर था जिसने तुम्हें जिस भयंकर रण की प्रेरणा दी ! क्या ही दुर्भाग्य की बात है, कि मानवता की सेवा करने की अिच्छा से अपने प्राणों की बलि चढानेवाले तुम्हारा नाम ठाम भी हम नहीं जानते ! तो फिर, यह अितिहास-रचना तुम्हारी अनामिक स्मृति को समर्पण! विजय हाथ से भले ही निकल गयी, तुमने अपनी आन पर ऑच न आने दी! तुम्हारे पराक्रम से अतीत की कीर्ति में चार चाँद लगे और भविष्यत् की प्ररेणा तथा चैतन्य की निधि बने ! हे स्वातंत्र्यवीरो! तुमने अपनी आन पर आँच न आने दी यह अच्छा ही किया, किन्तु सिकंदर बाग का यह आत्मार्पण तुम मिस से भी सुयोग्य समय पर करते तो विजय तुम्हारे चरणों में लोटती । अब तुम्हारे शत्रुओं की - शक्ति अनतगुना बढ गयी है। हजारों नये सैनिक अन की ओर से लडने आये हैं। दिल्ली के पतन से अनपर से युद्ध का दबाव बहुत कुछ कम हो • गया है। विजय से अन का धैर्य बढ गया है, जहाँ हार से तुम्हारा दिल बेठ गया है। लखनझू की यह भूमि जितनी वीराम और पथरीली है, कि दो , सहस हुतात्माओं का रक्त सिंचने पर भी असके अर्वरा बनने में - संदेह है। दुर्बल रेसिडेन्सीपर पहले ही धडाके में यदि तुम 'विजय था मौत' के नारे लगाते हुमे जीवट से आगे बढते तो केवल दो घडियों में स्वाधीनता

  • मलिसन कृत भिंडियन म्यूटिनी खण्ड ४ पृ. १३२.

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