पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४०४

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अभिप्राय ] ३६२ [तीसरा खंड का मुकुट भारत के मस्तक पर विराजमान हो जाता । तुमने अपनी ओर से पूरा आत्मसमर्पण कर मौत को मले लगाया किन्तु वह 'दिव्य क्षण' हाथ से निकल गया न ? वह समय, वह सोने का संजोम, हाथ से निकल गया सो निकलही गया ! क्रांतियुद्ध में कभी कभी अक क्षण की देरी से जो महान् हानि होती ह, वह बाद में जुग जुग तक कष्ट उठाने से भी पूरी नहीं हो सकती । अस समय रक्त की मेक बूद तुम्हे विजयमाला पहनाती-अब क्या,यह रक्तसिंधु, ये रक्त के फब्बारे तुम्हे अमर कीति से विभूषित करेंगे किन्तु जश?--अब आकाश के तारे बन गया है । क्रांति की झंझा में अक क्षण की दिलाी सव योजना के पैर उखाड देती है। मेक डम पीछे पड़ा और विपत्ति के पहाड सिरपर गिर जाते हैं। जीनेकी क्षणिक आशा ही, निश्चितरूप से आदर्श को मृत्यु की गर्ता में गहरी दबा देती है। सिकंदर बागही के समान अन्य स्थानों में भी असीम रतसिंचन हो रहा था । दिलखुशबाग, आलमबाग तथा शाह नजफ में दिन रात घमासान रण जारी था। अकाक सडके लखन में बंटे धनधनाने लगे, मारू बाजों की दनदनाहट चली और फिर मेक बार घायल लखनअने शत्रु से जोर की टक्कर ली । आज की मोतीमहल की लडाभी कल की शाह नजफ की लडाणी की तुलना में मरा भी कम न थी। किन्तु अन्तमें निश्चित रूपसे अंग्रेजों का जोर बढा और रसिडेन्सी में बंद रहे अनके देशबंधुओं को वे छुडा सके । १७ से २३ नवंबर तक लखनौ में समर की महा-लीला हुी और घेरे में पडे हुओं को घेरा तोडनेवाले मिल पाये। अबतक मृत्यु की छाया से मलिन रेसिडन्सी सानंद हास्य से प्रफुलित बनी । फिर भी क्रातिकारियों ने अंग्रेजी विजय का मूल्य कुछ न समझा । दोनों शत्रु सेनाओं अब मिल चुकी थीं और समूचा लखन रक्तसिंधु में नहा रहा था, तो भी अन के मुख से शरण या पीछे हटने का अक्षर तक न निकला। अनकी अिसी हठीलेपन और रणबांकुरेपन हीसे युद्ध का अन्त अनिर्णीत था। जिससे सर कम्बलने फिर से व्यूहरचना शुरू की। रेसिडेन्सी के सब सैनिकों को सुसने दिलखुश बाग में भेजा । आलम बाग में असने चार हजार सैनिक