पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४०८

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आमिप्रलय] [ तीसरा खंड । कैसे न था, लखनझूही में फिर से लडाी करनेपर अंग्रेज सैना कैसे मजबूर हुी, और १६ अगस्त. को क्रांतिकारियों की कैसे हार हुी आदि घटनाओं का विवरण पिछले अध्याय में दे चुके हैं । हार के बाद अपनी सारी सेना के . साथ तैरकर तात्या गंगापार हुआ और फतहपुर में नानासाहव को ना मिला। अब नयी सेना भरती करने का प्रश्न था । शिंदे की 'वफादारी के कारण असकी सेना, अंग्रेजों से भिडने को अत्सुक होते हुझे भी, हाथ मलती बैठी रही थी। तब किसी का गवालियर जाना अत्यत आवश्यक था । किन्तु किसी जादगार की तरह अपने अनुयायियों को जिसने मंत्रमुग्व कर रखा था और अंग्रेजों के मातहत होनेवाली पूरी पलटन को विद्रोही बनाकर अपनी मुट्ठी में रखा था, अस चतुर मराठा वीर के बिना दूसरा सुयोग्य व्यक्ति कहाँ मिलनेवाला था ? तात्या टोपे गुप्त रूपसे गवालियर गया । थोडे ही समय में अपने मुरार की छावनी के पैदल, रिसाले तथा तोपखाने को अपनी ओर कर लिया और अनको साथ लेकर वह कालपीतक पहुँचा भी । सैनिकदृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान के रूपमें क्रांतिकारियों को कालपी बहुत अपयुक्त होनेवाला था। कानपुर और कालपी के बीच बहनेवाली जमुना अग्रेजों के लिअ प्राकृतिक प्रतिबंध था । कानपुर के बाद कालपी जितना दूसरा सुसंरक्षित स्थान पाना असम्भव होने की बात सोचकर तात्याने कालपी के किलेपर कब्जा जमा लिया। नानासाहब को यह समाचार मिला, तव कालपी को अपना केन्द्र बनाने की दृष्टि से अपना प्रतिनिधि बनाकर अस किले की सुरक्षा का भार श्रीमंत बाला-साहब को सौंप दिया । श्रीमंत को किले की रक्षा का काम सौंपकर अब तात्या अंग्रेजोपर झपटने की योजना बनाने लगा। अस समय कानपुर की गोरी सेना का सेनानी सुप्रसिद्ध जनरल विंडहॅम था! अपनी सेना से कुछ हिस्सा कानपुर में छोड सर कॅम्बेल लखन -की ओर बढा । तात्याने ठीक अवसर भौंपा। लखन के क्रांतिकारी कम्बल की विशाल वाहिनी से टकरा कर असे फंसा रखते थे। जनरल विडहम को अन्य स्थान से सहायता पाना असम्भव था। अिसी समय अचानक हमला कर अस को हराना ही तात्या टोपे का दॉव था। बालासाहवने अनुमति दी; और