पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४१९

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अध्याय ७ वा ] ३७७ [लखन का पतन की परवाह न करते हुझे हर मानवसे बदला-) पांडों' को आसरा देनेवाले था न देनेवाळे गाँवों को जलाते हुमे, अस प्रदेश को बिटिशों की छत्रछाया में फिर से ले आने के लिओ, वॉलपोल मिटावे आ पहुँचा । वह और भी आगे बढता । यद्यपि मिटावे को क्रांतिकारियोंने खाली कर दिया था, फिर भी अपनी सारी सेना के साथ असे अस नगरमें रहना था। जैसी क्या अनीव बात थी; असाधारण आवश्यकता आ पड़ी थी अंग्रेजी सेना की प्रगति में यह रोक ! क्रांतिकारियों की बडी सेनाने तो कहीं असपर अचानक हमला नहीं किया ? या पैदल सेना थी? या रिसाला था ? या कहीं तोपखाना तो नमराज का तांडव खेल रहा है ! नहीं, मिटावे में जिस में से कुछ भी न था। न पैदल, न रिसाला, न तो ! अस दूर की बिमारत से, बीस-पच्चीस हिंदी वीर कडा प्रतिकार कर रहे थे। जिस अिमारतका छप्पर पक्का है और असकी दिवारों में बंदके चलानेभर को छेद बने हैं। हृदय में देशप्रेम की ज्योति और हाथ में बंदूकें लेकर ये २०१२५ वीर सब तरह से लैस प्रबल अग्रेजी सेना को अिटावे के चौखटपर रोक रहे थे। अग्रेजी तोपों तथा शस्त्रास्त्रों को किसी गिनती में न मान कर अग्रेजों को रोक रखा था। क्यों कि, मिटावे के नाम के योग्य कोसी बलि जो न दी गयी थी! और यह बलि कौन है ? वही, अिटाने की अिच्छा के विरुद्ध जो भी कोजी वहाँ पग धरने की धृष्टता करे । असे आव्हान है 'पहले लडो'। अिन २५ वीर. चरों ने अपना जीवन बडा महंगा बेचना तय किया था, जो कि वे सस्ते में बच सकते थे ! वे डटे रहे और अन्होंने ललकारा ' युद्ध | अिस भिमारत के छोटे से दायरे में और अिन मुठीभर पागलों से क्या लडें ! जरा ठहरना अच्छा है, तबतक ये पागल होशमें आ जायेंगे और छटक जायँगे; रास्ता जो खुला है-अंग्रेज यही सोच रहे थे । वे काफी समयतक रुके किन्तु बागियों के होशमें आने की सम्भावना न दीख पडी । सो, हमला करना तय हुआ। • तोपों की गडगडाहट सिन सिरफिरों को भगाने के लिखे पर्याप्त हैं। बस, फिर