पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४३

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अध्याय १ ला] ११ स्वधर्म और स्वराज्य 'पवित्र साधनाको पूरा करनेके साधन कहाँ है? उपर्युक्त घोषणामें बताया हुआ प्रभुका दिया हुआ परम-कृपा-निधि स्वराज्य' है ही कहाँ? कहाँ है वह सपत्ति १ कहा गया वह स्वदेश? कहॉ लोप हुई वह स्वसत्ता? पराधीनताकी ताऊनमे यह सब स्वर्गीय स्वातत्र्य मरा हुआ-सा पड़ा है। उपर्युक्त घोषणा ही में, यह पराधीनता की बीमारी हिदुस्थानका गला कैसे घोंट रही है यह बताने के लिए, इस घटनाओं का ब्योरेवार वर्णन किया गया है कि नागपुर, अवध और झॉसीके राज्य अंग्रेजोने कैस मटियामेट कर दिये थे। धर्मरक्षा के सभी साधन गॅवाने से प्रभु की इस पवित्र भूमीमे हम धर्मनाश के पातकर्म साझी हो रहे है यह बात लोगो को इस वर्णनसे प्रतीत कराने का खास हेतु था। क्यों कि, प्रभु की यही आजा है कि पहले स्वराज्य हासिल करो! क्यो कि, वही स्वदेश की रक्षा का मूलमत्र है। जो स्वराज्य प्राप्त करने के लिए जतन नहीं करता, जो गुलामी मे वेब-. घर सोता है वह धर्म का शत्रु और पाखडी है। इसलिये धर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो। 'धर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो'भारतीय इतिहास में इस सिद्धान्त के असरकारी अनुभव से भरे चाहे जितने दिव्य तथा उदात्त प्रमग मिल जायेंगे। सत गमदास ने २५० वर्ष पहले यही महामत्र महाराष्ट्र को दिया था, " धर्मके लिए मरे। मरते हुए पूरीतरह मारे। मारते मारते छिन ले। अपना राज्य" (दासबोध) १८५७ की क्रातिमे भी यही मलमत्र था। क्रातिका मनोविज्ञान यही है। श्री गुरुरामदासका उपर्युक्त छंदही क्रातिका स्पष्ट तथा सत्य स्वरूप दिखानेवाली एकमात्र दूरबीन। इम दूरवीनसे जब हम देखने लगते है तो हमें किस प्रकारका मुभव्य दृश्य दिख पड़ता है। स्वधर्म और स्वराज्यके लिए हुए इस युद्धकी पवित्रतापर अपजशके कारण जरा भी ऑच नहीं आती। गुरु गोविदसिगकी जीवनीकी उज्जल आभा मे, उनकी चेष्टाएँ उनके जीवनकालमें सफल न हो पानेपरभी, मलिनताकी छायानक नहीं पड सकती। अथवा, ,१४४८के