पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४४०

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उसे संगीनो से उठा कर चिता मे डालकर उसके सब अवशेष भूने गये।" दिल्ली जीता गया,लखनौ जीता गया,किन्तु क्रांतियुद्द का जोर धीमा न पडा।ऊस अचिन्तित स्थिति को देख कर अग्रेजो को विक्ष्वास हुआ कि,यह विप्लव सिपाहियों ने किया ओर वह भी एक दो असंतोष के कारण थे,ऐसे मानने मे बडी भूल कर रहे थ । यह 'वलवा','विद्रोह' नही था;स्वाधीनता के लिए ठाना हुआ युद्ध था । एकाद अंसतोष के आधारपर यह उत्थान न हुआ था; असीम दुखो को पैदा करनेवाली राजकीय पराधीनता ही इसकी जड मे थी। इस युध्द की जड में क्षुद्र व्यक्तिगत स्वार्थ नही था;स्वतंत्रता की पवित्र ज्योति,स्वदेश ओर स्वर्धम की महनीय ध्येय-भावनाए उसकी जड मे धधक रही थी।स्वाधीनता के पवित्र आदश्र ही को अपना स्वार्थ बनानेवाले सिपाही ही केवल अपना खून बहाने को उत्सुक नही थे,वरंच मध्यम क्षेणी के लोग तथा देहाती जनना भी इस उत्थान में मुख्यतः शामिल हुए थे। यदि ऐसा न होता तो यह बल,यह निर्धार,यह निःस्वाथ्रता,यह साहस कभी प्रकट न होता।क्यों कि,इसी समय,लॉड कँनिगने ढिढोरा पिटा था-"जो भी अब इस विद्रोह मे शामिल होगा उनकी सब मिल-मताओं तथा जमीने जप्त की जाएगी और जो शरण लेंगे उन्हें मुहाफ कर दिया जायगा।" इस घोषणा के बाद भी क्रांतिकारियों ने हथियार नही डाले।लखनऊ का पतन हुआ तो भी अवधने युध्द जारी रखा था।सिपाही,बनिया;ब्राह्मण,मौलवी,याज,जमींदार,तालुकदार,गॉववाले किसान अवध का हर सपूत इसमे शामिल था।डॉ.डफ इस प्रचण्ड उत्थान के बारे मे लिखता है:-यदि यह विद्रोह,बहुसंख्य जनता की सहानुभूति या सहयोग न होता और केवल सैनिकों का बलवा होता तो,पहली दो चार बडी विजयोसे उस बलवे को कुचल दिया जाता और मामला ठंढा हो जाता । परबात बिलकुल उलटी बनी | विद्रोह धीमा पडने के बदले और ही भडक उठा और उस का क्षेत्र भी बढता दिखयी दीया|और अब तो उस का रूप उग्रता लिए हुए है|