पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४४१

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अध्याय ७ वॉ] ३९९ [लखनथू का पतन amera मालूम होता है, यह सैनिकों का मामूली बलवा नहीं, यह विप्लव है, क्रांति का अत्थान है । यही कारण, है कि हमें असे दबाने में बहुत थोडा यश मिला है और, मालूम होता है, कि वह जल्द शांत नहीं होगा। आये दिन के अनुभव से अब यह स्पष्ट होता जाता है कि यह 'बलवा' का मेक खडा नहीं हुआ है । दिनोदिन अिस के और प्रमाण मिलते जाते है। यह 'बलवा दीर्घकालिक तथा सोच समझ कर रचा हुआ है, जिस में हिंदु मुसलमानों का अस्वाभाविक मेल होकर वे कधेसे कंधा भिडाकर शामिल हुआ है, अवध की सारी जनता ने जिसे खुल्लमखुल्ला अपनाया और पोसा है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपसे आसपास के लगभग आधे से अधिक मातोंने अपने आशीर्वाद दिये है और सहायता भी की है.-- असे 'बलवे । को, पूरेपूरी और सराहनीय कुछ विजयों से, जो बागी सिपाहियों पर मिली हो, दबाना असम्भव है।" "मारंभ ही से यह बलवा धीरे धीरे विप्लव का रूप धारण करता जा रहा है-सैनिकों के अलावा सर्वसाधारण असंख्य जनता का यह विद्रोह अग्रेजी सत्ता और शासन के विरुद्ध है। हमारी सच्ची लहाी केवळू बागी सिपाहियों से नहीं थी और अब तो लगभग नहीं के बराबर है। केवल सिपाही हमारे सामने शत्रु होते तो देश में कब की शान्ति हो गयी होती, 'जहाँ जहाँ भिडन्ते हुभी वहाँ वहाँ अपने शत्रुको तितर बितर कर और अस की तोपें छीन कर ही भगया है। किन्तु, बारवार पिटने पर भी वह फिर से संगठित हो कर सामने खडा हो ललकारता है । अिधर कोऔ शहर जीता या मुक्त किया नहीं कि दूसरे नगर को खतरा खडा हो जाता है। गोरे सैनिकों की बढिसे मेक जिला सुरक्षित होने की बात प्रकट करते हैं तो दूसरे जिले में अशान्ति और बलवा शुरू होता है। मोर्चे के स्थानोंमें यातायात प्रबन्ध होते ही फिर असे बन्द कर देना पड़ता है और कुछ समय के लिओ तो किसी तरह का सबध ही नहीं रहता, मेक वस्तीसे बागियों को भगाया नहीं, और दूसरी बस्तीमें दुगनी तिगनी संख्या में वे