पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४४४

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wwwwwww अग्निप्रलय] ४०२ [ तीसरा खंड सूखी घास वह कभी नहीं चबायगा; असकी अकमेव आकांक्षा, असी सुभाषित के अनुसार, हाथी का गडस्थल फोडने की, शत्रुका अण्ण रक्त पीने की थी। अनादि काल से कुँवरसिंह के वंश में रहा प्रदेश शत्रु हडप चुका था। जगदीशपुर का राजमहल भी शत्रु ने अपवित्र कर छोडा था । अस के मंदिर और अन की मूर्तियाँ फिरंगी के पापी हाथों से भम और अपवित्र हो गयी थीं तिसपर मी कुँवरसिह ने काफी संयम रखा था। न अमने जगदीशपुर से अपना मत्था फोडा, न शहाबाद प्रांत को अपने कब्जे में रखने की चेष्टा की। अस की राजधानी के अिर्दगिर्द अंग्रेजों ने कडा पहरा रखा था। कुँवरसिंह के पास केवल १२०० सैनिक तथा ५०० नौसिखिये स्वयंसनिक थे । मिसी से अपनी राजधानी को जीतने का इठ असने न किया। हॉ, स्वाधीनता का झण्डा लहराये रखने का अस का पुरेपूर निर्धार था। जिस दिन असने इठाला प्रतिकार न करते हुझे जगदीशपुर छोडा था असी दिन अक अनोखी युद्धपद्धति का अवलंबन करने की अस न ठानी थी। यही अक मात्र युद्ध पद्धति है जो यशमाप्ति की निश्चिति की दृष्टि से अनमोल महत्व रखती है। अिस का नाम है वृकयुद्ध। अिसी से अपनी राजधानी से वंचित कुँवरसिंहने अपनी सेना को शत्रुओं से न भिया । वह जानता था कि अंग्रेजी सेना के आक्रमक धक्के से अस की मुट्ठी भर सेना मक्खी--मच्छरों के समान चुटकी में पीसी जाती । अिसी से शत्रु के मर्मस्थान का सुराग लगाते हुॐ सोन के किनारे हो कर पश्चिम बिहार के जंगल में आसरा लेकर बैठ गया। तब असे पता चला कि लखन की खबर लेने के लिअ आजमगढ़ से गोरखों तथा अंग्रेजों की सेना भेजी गयी है। अस शेर की तीक्ष्ण नाक में अपने शिकार की · बराबर आ गयी; और तुरन्त जगदीशपुर का सिंह जंगल से बाहर हो झपटा। कुंवरसिंह वृक-युद्ध का पण्डित था । अवध के पूरबी विभाग में ब्रिटिशों का बल बहुत कम था। सो, , अन पर झपटने तथा अॅस विभाग में फैले हुमे कातिकारियों को संगठित कर . फिर से आजमगढ पर छापा मारने के लिये अस तरफ बढा । अस का विचार था, कि जिस चढायी में सफलता मिले तो बनारस या अिलाहाबाद पर