पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४५५

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अध्याय ८ वॉ] ४१३ [कुंवरसिंह और अमरसिंह कुंवर सिंह की कमसे कम मेक किश्ती पकडने में वह सफल रहा। कुंवरसिंह की वह अन्तिम नाव थी। लगभग सब सेना परले कॉठे पहुँच भी चुकी थी। और यह निश्चित कर कि सब कुछ ठीक हुआ है, कुंवर सिंह भी अब गंगापार हो गया होता। हाय ! किन्तु जब वह राष्ट्रवीर, वह शूर और सुदारतापूर्ण मानी महाभाग, वह स्वाधीनता का पराक्रमी खड्ग कुंवरसिंह मझ धार में था तब शत्रु की अक गोली सॉय सॉय करती आयी और असकी कलाी में घुस गयी। मस्सी साल का बूढा होने पर भी असे असकी परवाह न थी; किन्तु जब सारा हाथ निकम्मा होनेका भय हुआ, तब असने अपने ही दूसरे हाथसे तलवार अठाई और कुहनी तक घायल हातको तोडकर गगामें फेंक दिया और कहा 'गगामैया! तुम्हारे प्यारे पुत्र की यह मन्तिम बलि! माता अिसे स्वीकार करो। 'गगामैया ! । पुकारनेवाले अनगिनत जीव है; किन्तु कुँवरसिंह के समान असाधारण वीर पवित्र गंगा को माता कहकर अस की कोख को सुफलित करने और चमकानेवाले होते हैं । आकाशमें अनगिनत तारे चमकते है; किन्तु अक मात्र चाँद ही असकी शोभा बढा कर असे रमणीय बनाता है-कश्चन्द्रास्तमो हन्ति, नच तारांगणोंऽपिच । - गगामैया को अिस तरह भोग लगा कर यह कुलभूषण अंग्रेजी सेना से और किसी प्रकार कष्ट न पाते हुओ गगा पार हुआ। अस शिकारी की तरह, जो अपने शिकार को ऑखों के सामने छटकते देखता है, छटपटाते, हाथ मलते अग्रेज रह गये, अनकी शेखी चूर चूर हो गयी थी; अनका मन्तव्य अधूरा रह गया था। क्यों कि;गगा पार होने की हिम्मत अनमें न थी। व्याध के ताने हुओभाले की पहुंच से दूर और असके जाल को तोड छूटे हुआ शेर की तरह कुँवरसिंह भी शाहबाद के जंगल मे फॉद कर जगदीशपुर पहुँच गया; २२ अप्रैल को वह अपनी राजधानी में पहुंचा । भिसी राजधानी से असे आठ महीनों के पहले खदेडा गया था। फिर अब वीर राणा कुंवरसिंह अपने सिंहासनपर विराजमान हुआ। स्वदेशाभिमानी किसानों का दल साथ लेकर कुंवर सिंह के पहले गंगा पार हुआ असका भाभी अमरसिंह भी वहाँ आ पहुँचा । अस को, सेना का ठीक