पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४५७

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अध्याय ८ वा] ४१५ [कुवरसिंह और अमरसिंह mopm किन्तु अन के मुकाबले में क्रांतिकारियों के पास तोपें ही नहीं थीं । क्या पता है, जैसी दशा में भी अस घनघोर अरण्य में चारो ओरसे क्रांतिकारियों की सेना हम पर हमला करने को, वह बूढा कुंवरसिंह,भेज दे! डर है, हमारे धेरै जाने का ! तो फिर चलो शुरू करें वह साइसी सगीनों का हमला, जिस से अशियायी हिम्मत हारते हैं, डरसे कॉपने लगते हैं। घुस पडी गोरी ना, आज्ञा होते ही, बड़े वेगसे । कुंवरसिंह के सैनिकों ने प्रतिकार किया। और भगवान जाने क्यों, तात्काल साइसी गोरे सैनिकों का दिल बैठ गया और पीछे हट' का हुक्म दिया गया ! कॅवरसिंह के सैनिकोंने गोरे सैनिकों को चारों ओरसे दबोचा था । पीछे हट की आज्ञा के सुर मारू बाजे बोल रहे थे, किन्तु पीछे इटना भी तो अब खतरे से खाली नहीं था। जिस से तो लडते हुओ मर जाना, बेहतर था। हे ब्रिटिश बहादुरो। जब पिछेइट या डटकर लडना दोनों हानिकर हैं, तब आजतक तुमने जिस अटूट धैर्य गोरों की खासियत' होने की डींग मारी थी असका परिचय, डटकर लडकर, अभ दे सकते हो! हाँ चाहे तुम . अपनी शेखीको निबाहो या न निवाहो, यहाँ तो यायलायति स जीवतिवाला मासल है! और सचमच, व्याध के आगे कलॉच भरनेवाले हिरनके समान गोरे भागने लगे। जिधर पॉव ले जाय वे जंगलसे भागते थे, क्रांतिकारी अनका डटकर पीछा करते थे। सब गोरी सेना तितर बितर हो गयी 1 जिस हारी सेनामें समय अपपस्थित अक व्यक्ति अपने मनुभव अक पत्र में यों कथन करता है:-'मैं आगे जो कुछ लिखनेवाला हूँ असपर मैं स्वय लज्जित हूँ। समरागणसे भाग, हम जंगलके वाइर तो किसी तरह आये, किन्तु शत्रु हमारा पीछा नहीं छोड़ता था। प्याससे छटपटाते हमारे लोग अक गदा गढा देखकर अधर दौडने लगे। ठीक. भिसी समय कुंवर सिंह के घुडसवार हमारा सुराग लगाते आये। तब इमारी छीछालेदरकी सीमा न रही और हमारी पूरी दुर्दशा हुी। लज्जाको सबने लात मारी और जिधर पॉवले जाये हम भागते मये । सैनिक भाशा, अनुशासन संगठण सब भाडमें गये थे। जिधर देखो अवर, लम्बी सॉसें, आउँ, गालियाँ आर्त रुदन, और कराइ--यही सब सुनायी पड़ता था। कुंवरसिंह हमारा वैद्यक विभाग भी इथिया चुका था, जिससे वादारू भी क्या माँग ? कुछ ने तो वहीं