पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४६१

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रविजय की आकाक्श रच्ननेवाले को चाहिये ,कि अप्नने अनुयायि को हिम्म्त न करने दे | ह्र्र बार मैदान से छटक जाना तथा प्नब्ल शत्रु को देख लडायी से तरा कसना ,यह नीति आपने अनुयायि

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अध्याय ८ वॉ] ४१९ [कुंवरसिंह और अमरसिंह विजय की आकांक्षा रखनेवाले को चाहिये, कि अपने अनुयायियों को हिम्मत न हारने दें। हर बार मैदान से छटक जाना तथा प्रबल शत्रु को देख लडाभी से किनारा कसना, यह नीति अपने अनुयायियों के आत्मविश्वास को बढाने के बदले अलटे डिगाती जाती है । नेता कुछ हेतु से जानबूझ कर हारे-या किसी अद्देश से मैदान से इटे, तो ऐसे समय ध्यान रखा जाय कि अपने अनुयायियों में अिस से किसी प्रकार की अदासीनता तथा अविश्वास न पैदा होने पावे। बारबार लडाभी टाल कर मैदान से भाग जाना अच्छा नहीं । परिणाम यह होता है, कि अनुयायियों में लडाी का डर पैदा हो जाता है। चतुरता से लडाजी टालना तथा परेशान हो कर मैदान से भागना-भिन में बड़ा अंतर है। अिसी से. डर कर मैदान से हट जाना वृक-युद्ध के तंत्र के संपूर्णतया विरुद्ध है। भिडन्त तय होते ही अितने वेगसे तथा त्वेष से लडना चाहिये, जिस से शत्रु का हृदय धडधडाने लगे और अपने अनुयायियों के अतःकरण में असीम आत्म विश्वास बढ जाय । कुशलता जिस में है कि बेमेल भिडन्त करने को शत्रु बाध्य करे जैसे समय लडाी न करें । किन्तु अक बार ठन जाय तो कुँवरसिंह की तानू नदी की लडाभी की तरह जीवट से कडी होनी चाहिये। मतलब, अपना बल कम हो तो नेता को चाहिये, कि भिडने के फंदे में न फँसे । प्रति. योगी बराबर का हो तो मुठभेड हो जानी चाहिये किरतु अिच्छा से हो या अनिच्छा से, भेक बार रण में भिड जाय तो फिर डरसे या टीले अनुशासन से पीछे पग कभी न धरना चाहिये, अलटे; निश्चित अपयश या तात्काल मृत्यु का भय हो तो भी डट कर वीरता से लहामी करें, जिस से विजय हाथ से निकल जाने पर भी कीर्ति तो किसी तरह न गंवायें । असी लडाजी करते रहे तो शत्रु कॉप जाता है, अनुयायियों का धैर्य बना रहता है, सैनिक अनुशासन ढीला नहीं पडता, और हुतात्मता की कथाओं से स्फूर्ति में बाढ आती है। चीरता से वीरता दुगनी होती है और जश अवश्य मिलता है। वृक-युद्ध से लडनेवाली सेना या अस के नेता के मन पर यह असर कभी न पड़ने की सावधानी रखनी चाहिये, कि शत्रु ने असकी वीरता से दवा कर अपने को इराया है। यहीं है कुंजी वृक-युद्ध के तंत्र की।