पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४६२

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अमिमलय ] [तीसरा खड romanmmmsmarried किन्तु वृक-युद्ध के अिस विधायक भाग भर तात्या टोपे ने ध्यान नहीं दिया । नर्मदापार करने के लिओ तात्याने तथा गंगापार होने में कुँवरसिंहने जो गतिविधियाँ चलायीं, अनका अध्ययन बडा बोधप्रद शेगा। केवल डरसे घबड़ाये अनुयायियों ही के कारण तात्या को कभी बार हारना पंडा । किन्तु चढाी के समय कुँवरसिंह अपनी इरावल भितनी जोरदार रखता था, कि जब कभी मौका मिलता, पीछा करनेवाले शत्रु को जोर की थप्पड दे सकता था। सिसीसे शत्रु को पीठपर रखकर भी वह जब पीछे हटता जाता तब भी असके अनुयायी प्रचंड आत्मविश्वास तथा स्फूर्ति से भरे रहते थे। हाँ, अक बात न भूलनी चाहिये, कि पहली की हारसे सारी सेना का जी पहले ही बैठ गया था और युद्ध के पूर्वार्ध में बड़े बड़े वीरामणी मर या घायल होकर निकम्मे हुमे थे-असे कुसमय में तात्याको वृक-युद्ध का आसरा लेना पड़ा। मिसीसे असके वृक-युद्धमें विशेष निपुण तथा कुशल संयोजक होनेपर भी अधूरे साधनों के कारण, स्वाभाविक था, कि वह अपनी योजना को सफल कर न पाया। तात्या टोपे की हार का कारण था असके डरपोक और लचर अनुयायी ! और जिसी से असफल रहनेपर भी असकी क्षमता पर रंच भी आँच नहीं आती। किन्तु शिवाजी महाराज के पदचिन्हों का अनुसरण करनेवाले कुँवरसिंहने अपने अनुयायियों का जी कभी न बैठने दिया, अलटे अपने में और अनमें अभिनद आत्मविश्वास फुलाने का जतन किया । असका पराक्रम, साइस तथा अनुशासन सराहनीय था। लडाी करने तथा टालने दोनों में असने असाधारण चतुरता का परिचय दिया, और, अिसीसे शत्रुको नष्टभ्रष्ट कर विजयमाला गले में पड़ी थी तब, स्वातंत्र्यध्वज की छत्रछायामे तथा स्वाधीन सिहासनपर यह बूढा किन्तु असाधारण वीर भारतीय योद्धा पुण्यपद वीरगति को प्राप्त हुआ। २६ अप्रैल १८५८ को कुंवर सिंह की मृत्यु हुी। यह महान व्याक्ति मितिहास के रगमंच से निकल जाने पर, अस की जोड के शूर और स्वदेशभक्त और ओक व्यक्तिने रंगमंच पर पदार्पण किया। यह व्यक्ति और कोसी न होकर असी का भाी राजा अमगसिंह ही था। पूरे चार दिन का आराम भी न लेकर और लडाभी के सत्त्व को कम न होने देकर अमरसिंहने आरा पर