पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

-IN. - अध्याय १० वाँ रानी लक्ष्मीवानी "क्या, मैं झाँसी छोई ?-नहीं छोडूंगी ! किसी की हिम्मत हो तो आजमा ले; मेरा झॉसी नहीं दूंगी !! n 'झाँसी की समरलक्ष्मी के गलेसे अस का स्वातंत्र्य-कौस्तुभ-कौन छिनने की धृष्टता करेगा ? मिस लोक में अद्दण्ड बने सारे राक्षम आ जायें या मृत्यु की यत्रणाओं का समूचा संभार साथ लेकर साक्षात् जमराज सामने आ खडे हो, कोमी भी अस स्वातंत्र्य-कौस्तुभ को छिन नहीं सकेगा । लक्ष्मी के शरीर में जब तक लहू का मेक बिंदु शेष हो तब तक स्वाधीनता की कौस्तुभमणि अस से कभी अलग नहीं हो सकता!' और लहू की अन्तिम बूंद भी सूख जायगी या अस के शरीर से चू पडेगी, तब भी स्वाधीनता की कौस्तुभमणि अस के कंठ में पडी रहेगी और वह धधकी हुश्री अग्निज्यालाओंपर आरूढ होकर परलोकको प्रयाण करेगी, अप्त समय हे नराधमो ! अस लपलपाती अमिज्वाला में तुम खाक हो जाओगे । और फिर तुम महारानी लक्ष्मीबासी को अल के कौस्तुभ से-स्वाधीनता की मणि सेकैसे वंचित कर पाओगे ? जहाँ लक्ष्मी वहॉ स्वाधीनता! हम फिर अक बार स्पष्ट करते है, अिन दोनों को अक दूसरे से वचित कभी नहीं किया जा सकेगा । झॉसी, वहाँ का राजप्रासाद, जरीपटका ( मराठी झण्डा), सिंहासन, अस के स्त्री-धन का जेवर और स्वाधीनतामणि के साथ झाँसीवाली लक्ष्मी या