पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४९३

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अध्याय १० वॉ] ४५१ [रानी लक्ष्मीबासी हुमे शहर की ओर भागे और ओट से शिकार खेलने लगे। फिरंगी खून से अब अस काली का क्रोध कुछ शान्त हुआ, अब अस के ध्यान में आया कि किले से मितनी दूर सिंस तरह अकेली का लडना बडी मूर्खता थी। किन्तु भिस असाधारण साहसी वीरता का प्रतिध्वनि अब शहर के हर रास्ते में मिलने लगा। जब कि सारा शहर और राजमहल भी अंग्रेजी तरवारों ने रक्तरंगित कर दिया था, राजमहल के घुडसाल के ५० नौकरोंने घुडसाल छोड़ने से अिनकार कर दिया। 'शरण' का शब्द सुन के शब्दकोष में स्था ही नहीं। अन में से हर ओक ने अपनी शक्तिभर अधिक से अधिक गोरों का.खात्मा किया; और अन में से हर मेक कट जाने पर ही वह घुडसाल 'शत्रु के हाथ लगी। अंग्रेजों ने अभी तक शहर को खंडहर बना डाला था। अन के हाथ में जो भी आता, चाहे पांच साल का बालक हो, चाहे ८० वर्ष का बूढा, असे कत्ल कर देते। शहर भर आग लगायी गयी। घायलों या मरनेवालों की कराहों तथा मारनेवालों की चिलाइट से आकाश गूंज अठा। सर्वत्र कुहराम मच गया। अग्रेजों ने किले के परकोटे को, बहुत पक्का होने के कारण, अडा देने का काम दूसरे दिन करना तय किया था। आन झॉसीवाली रानी परकोटे पर खडी अस अत्यत करुणापूर्ण दृश्य को देख रही थी। असे अत्यंत दुख हुआ। अन की ऑखें डबडबायीं। रानी लक्ष्मीबासी रोयीं। वे सुदर ऑखें रोने से लाल हो गयीं। अन का झाँसी और अस की यह दशा! फिर अक बार सिर अॅचा कर देखा कि झाँसी की किलाबन्दी पर फिरंगी का झण्डा-पराधीनता का दाग-गाडा गया है। बस, मेक विलक्षण तेन अन रोनेवाली आँखों में चमक अठा । धन्य वे ऑख, पइ हृदय, वह धैर्य ! अरे, यह दूत कौन बेतहाशा दौड कर अस के पास आ रहा है ! दूत ने कहा :- रानी सरकार ! . किले के प्रमुख 'दाररक्षक, अतुल धैर्य, सरदार कुंवर खुदाबक्श और गुलाम गोशखा-तोपचियों का सरदार-दोनों को अग्रेजों ने गोली से अडा दिया है। गृहले ही दुखी हृदय पर यह कितना भयंकर आघात ! कैसे सकेट पर संक्ट मा रहे हैं ? रानी, अब आगे क्या विचार है ? विचार-मेकमाव निश्चय है