पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४९४

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अग्निमलय ] . १४५२ तीसरा खड़ स्वाधीनता की कौस्तुभमणि झाँसी की लक्ष्मी के गले से नहीं गिरना चाहिय। अस दूत से, जो अक बूढा सरदार ही था, कहा :-देखो, मै अिस किल के साथ, स्वयं अपने हाथों बारूद के भंडार में आग लगा कर अड जाना चाहती हूँ।" अपने जरिपटके के साथ-स्वाधीनता के झण्डे के साथ-या तो वह सिंहासन पर होगी या चिता पर! ____ यह सुन कर अस बूढे सरदार ने शान्ति से कहा :- सरकार ! यहाँ रहना अब खतरनाक है । शत्रु की छावनी को चीर कर आप को आज रात में किला छोड चले जाना चाहिये और पेशवा की सेना में पहुंचना चाहिये। और यदि मार्ग में मृत्यु आ जाय तो समरांगण-तीर्थ की पवित्र धारा में गोता लगा कर स्वर्ग के खुले द्वार से प्रवेश हो सकता है।" 'मैं मैदान मे लडते लडते मरना अधिक पसंद करती हूँ' रानी ने कहा, "किन्तु मैं स्त्री हूँ, मेरे शरीर की कहीं विडंबना होगी तो?" ___सब सरदारोंने मेक स्वर से कहा “विडंबना ? हम में से मेक भी जीवित है, तबतक आप के शरीर को छूने का साहस करनेवाले शत्रु को हमारी तलवार टुकड़े टुकडे कर देगी।" ____ अच्छा! रात हो गयी, रानी लक्ष्मी ने अपनी प्यारी मजा को बुला कर अन्तिम बार आशीर्वाद दिया। झाँसी छोड जाने का रानी का अिरादा जान सारी प्रजा की आँखें डबडबायीं। शायद फिर रानी कभी न आयें ? रानीने चुनिन्दे घुडसवारों को अपने साथ लिया। जेवर से शृगारित अंक हाथी अन के बीच रखा गया और 'हर हर महादेव' की गर्जना कर वे किले से अतरने लगीं। पुरुष-पेश बनाया था; फौलादी कवच ने शरीरकी रक्षा की थी। कमरमंद में अक जमिया पडा था और मेक पैनी तलवार लटक रही थी; अचल में अक्र पियाला बंधा था; और रेशमी धोती से, पीठ पर अनका दत्तक पुत्र दामोदर, बंधा हुआ था। मेक श्वत अश्वपर चढी, जिस तरह सजी, वह लक्ष्मी प्रत्यक्ष महादेवी लगती थी । अत्तरी दरवाजे के पास पहुंचने पर टिहरी के देशद्रोही राजा के प्रहरीने टोका, 'कौन है ? ' 'टीहरी की सेना सर ह्यू रोज