पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४९८

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अमिमलय] ४५६ [तीसरा खंड maamrown किरखी नरेश राव माधवराव की आयु १० वर्ष की थी और अंग्रेज अस के रक्षक बने थे। किरवी के राव बाजीराव पेशा का नजदीकी नातेदार था। १८२७ में अनन्तरावने (अस समय के किरवी नरेश ) काशी के मंदिरों में दान करने के लिओ अंग्रेज सरकार के पास दो लाख रुपये जमा कर दिये थे। अनन्तराव के मरते ही अग्रेज यह सारी रकम हडप गये । जिस से योग्य पाठ न सीखते हुअ अन के पुत्र विनायक राव ने भी की, लाख रुपयों की थाती अंग्रेजों के पास रखने की मूर्खता की थी, वह रकम भी अन्याय से हडप कर गये थे। विनायकराव के मरते ही यह घटना हुी। विनायकराव का दत्तक पुत्र माधवराव नाबालिग था, रियासत का प्रबंध अंग्रेजों के हाथ में था, प्रधान कर्मचारी रामचंद्रराव अंग्रेजों से नियुक्त था जिस दशा में अंग्रेजों को किरवी रियासत में किसी प्रकार के विद्रोह की आशा न थी। किन्तु १८५७ में अिन रावों और महारावों ने जो कुछ किया अस से अन की पूजा सम्मत न होती थी। कभी अप्रत्यक्ष, कभी प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र की सच्ची शक्ति जनता का बल, सदियों तक कुचला जाने के बाद भी धीरे धीरे अपना प्रभाव जमाने की अनथक्त चेष्टा कर रहा था। किरवी के जमींदार, धर्मगुरू, व्यापारी, यहाँतक कि मामुली से मामूली आदमी भी स्वाधीनता के आदर्श से प्रभावित हुआ थे और अक दिन दिली स्वतंत्र होने के समाचार सुन कर आनंद से अछल पड़े थे। दूसरे दिन लखना स्वतंत्र घोपिन हुआ और तीसरे दिन झॉसी ने फिरंगी के झण्डे को अखाड फेंकने के समाचार आये। मिन आशापद घटनाओं से अत्साहित हो कर लोगोंने किरवी स्वतंत्र होने की घोषणा की, और विदेशी कंधावर को, बिना राव की सम्मति या मंत्रियों की आज्ञा के, फेंक दिया। जब जनता से स्वतंत्रता की घोषणा डंके की चोट पर पुकारी जा रही थी तब किरवी के ९ या १० वर्ष के राजाने अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ भी न किया था। अलटे, जब अंग्रेजी सेना बुंदेलखण्ड में लौट आयी तब. असते अस का स्वागत कर अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। निमंत्रण को स्वीकार कर अंग्रेजी सेना चुपचाप चली आयी; किन्तु आयी अस नाबालिग राव को बंदी बनाने, असकी राजधानी को खंडहर