पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अध्याय १० वॉ] १६५ रानी लक्ष्मीबाया प्रणाम किया। जिस तरह क्रांतिनेता के मेक जादूी स्पर्श से गवालियर नरेश का सिंहासन इडइडाकर गिर पडा ! और कायर जयानी तथा अस का मंत्री दिनकरराव दोनों मिलकर, केवल मैदान ही को नहीं, गवालियर को भी छोड आगरे भाग गये। गवालियर की प्रजा के आनद का ठिकाना न रहा । श्रीमत के सम्मान में सेनाने तो दागीं। शिंदे के कोषाध्यक्ष अमरचंद भाटिया ने शिंदे के खजाने से सब कुछ पेशवा के चरणों में घर दिया। क्रांतिकार्य से सहानुभूति दिखानेवाले जिन देशभक्तों को बंदी बनाया मया था, अन्हे जनता के जयघोष में मुक्त किया गया । अंग्रेजों का साथ देने की सलाह देनेवाले शिंदे के राष्ट्रादोही पितृ जयाजी के साथ भाग गये थे; किन्तु अन का नामोनिशान भी न रहे अिसलिो सुन के घरों में आग लगायी गयी और अन की सपत्ति जब्त की गयीं। 'राजा और प्रजा का सच्चा नाता अशियायी लोग बिलकुल नहीं समझ पाते । अिस घृणित व्यंग को गवालियर की प्रजा ने मुंहतोड अत्तर दे कर असे झूठा प्रमाणित कर दिया है । क्यों कि, वह राजा क्या है, जो स्वदेश और स्वधर्म का द्रोह करे ! पेशवा के सिंहासन से बाजीराव (२ य) को ठीक समय पर नीचे न खींचने के कारण ही तो १८१८ में मातभमिका द्रोह करने के पातक के कलंक का टीका पुणे के माथे लगा ! गवालियरने यह पातक न किया, जिस से १८५७ की क्रांति आधुनिक भारत में नये से अंकुरित होनेवाली प्रजा की शक्ति के प्रथम अदाहरण के रूप में, मितिहास में अकित होगी। शिंदे यदि स्वदेश का साथ नहीं देता तो स्वदेश भी असे सहारा न देगा। तलवारें और तोपें, रिसाला तथा पैदल सेना, दरबार सेवं सरदार, मंदिर और मूर्ति-सब कुछ राष्ट्र के लिजे है और शिंदे ही केवल राष्ट्र के लिअ न हो तो घसीटो असे सिहासन से; और निकाल बाहर कर दो असे राजमहल से, राजधानी से, ठेठ राज की सीमा से ! अब 'राजा प्रकृति रजनात् '-राजा जनता क सुख के लिओ हैं-अिस रएक