पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५१५

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हमारे भारतवर्ष का सचमुच अहोभाग्य है,कि ऐसा स्त्रिरत्न वहाँ पैदा हुआ। अग्नि से भी बढ़ कर तेज से वह रत्न प्रकाशमान है। बाबा गंगादास की झोंपड़ी के सामने घघकती ज्वालाओं द्वारा वह दमक रहा है! किन्तु,हमारी वैभवशाली मातृभू मी जैसे रत्न को शायद ही पैदा कर सकती,यदि यह स्वातत्र्प-समर,यह स्वाधीनता का महायज्ञ रचा न जाता। अनमोल मोती सागर की सतह पर नहीं उतराते!रात्रि के अंधकार में सूर्यकान्तमणि तेज की किरणें नहीं फेंकती;चकमक का पत्थर मुलायम सिरहाने पर घिसने से चिनगारी नही देता। इन सब को विरोध की अपेक्षा होती है। अन्याय मन को बैचेन बना दे; ऊपर से नहीं,अंदर रक्त का हर बिंदु खौलना चाहिये। अति तीव्र स्वदेशभक्ति,तल से मथी जाने पर, ज्वलनबिंदु की अग्र पर जलनेवाली अग्नि से उत्तेजित हो जाय। खौलते क्रोध से भट्टी के बरतन को खूब हिलाया जाय; अन्याय का ईधन भट्टी को लगातार तपाता रहे;लपटें एक दूसरे को क्रोड में छिपाती ऊपर ही ऊपर उठें, जैसी भट्टी मे,फिर, सदगुणों के कण चमकने लगते है;कसौटी चलती रहती है;ऊपर का सारा मल निकल जाता है; फुटकर कण द्रवरुप बनकर एक ही जात है और फिर सब सढ्गुणो का निचोड़ दिखायी पड़ने लगता है। १८५७ में हमारी भारत माता में कृत्रिम नहीं, सचमुच ही आग भड़क उठी;फिर संसार के कान फाड़नेवाला धमाका हुआ और कैसा अ:वात! देखो कितना विशाल फैलाव इस आग का हुआ है!ऊँंची और ऊँची लपट पर लपट-मेरठ में चिनगारी और डलहौसी के 'रोलर' मे समथल बना और धूल के ढेर सा सारा देश ज्वालाग्राही बारूद के अबार सा मालूम पडा। जैसे आतशबाजी का अनार खुलने पर उसमें से रंग बिरंगे बाण,पेड़ तथा अन्य कई प्रकार की वस्तुए छूटती,घुसती, जलती और शांत हो जाती है,उसी तरह इस क्रांति के अनार के तप्त लहू,बहा,शस्त्रास्त्र और मुठभेडें निकली-ऊपर,वेग से ऊँची उठी।और यह अनार भी कितना बढ़ा! मेरठ से विध्याचल तक लम्बा;पेशावर से डमडमे तक चौड़ा! और उसे सुलगाया गया! आग की लपटें सभी दिशाओ में व्याप्त हो गयीं और उस अनार के पेट मे क्या क्या