पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५१६

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अमिषलय ] [ तीसरा खंड अजीब चीजें थीं। लहू बारिश की तरह बरसा, भोलों के साथ ! दिली के घेरे, पलासी के प्रतिशोध, कानपुर की तथा लखन के सिकंदराबाग की कलें ! सहस्त्रों सहस्त्र वीर झूझ रहे हैं और मर रहे है। नगर जल रहे हैं; कुँवरसिंग आता है, झूझता है, गिरता है; मौलवी आया, लड़ा और मरा; कानपुर, लखन, दिल्ली, बरेली, जगदीशपुर, झाँसी, बॉदा, फर्रुखाबाद के सिंहासन; पाँच इनार, दस हजार, पंचास सहस्त्र, लाख लाख तलवारें; ध्वजारों झण्डे; सेनापति घोडे, हाथी, अट-सब मिस अनार से बाहर अक के बाद अक आग के फवारे में निकलते है ! मेक कुछ अँचाभी की लपट पर, कुछ दूसरी पर; ये अंचे चढ जाते हैं, लडखडाते हैं और लुप्त हो जाते हैं! सब दूर लडाी-बिजली की गडगडाहट ! ज्वालामुखी के भीषण ज्यालाओं का फबारा यह !! और वह चिता-बावा गंगादास की झोंपड़ी के पास जल रही है, १८५७ के स्वातंत्र्य-समर के ज्वालामुखी को अमिप्रलय की यह अन्तिम ज्वाला है। तीसरा खण्ड समात