पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५२

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ज्वालामुखों ] [प्रथम खंड १८३९ में ब्रिटिश सत्ताको उलटा देनेके पडयंत्रम शरीक होने के अपराधम छत्रपति प्रतापसिहको गद्दीसे हटाकर अंग्रेज सरकारने छत्रपति अग्पामाहबको उनके स्थान में सिहासनपर बिठाया था।* ___" डलहौसीका गासनं " पुस्तकम श्री आर्नोल्ड लिखते है, " छत्रपतिकी पदच्युतिकी कहानी अकथनीय तथा (अग्रेजों के लिए) कलकित करनेवाली हैं। " ऐसी अपमानपूर्ण तथा निर्लज्ज पदच्युति के बाद अंग्रेजोंने निःसन्तानताकै कारण सातारकी गद्दीपर, प्रतापसिंहके भाईको बिठाया, जिससे अंग्रेजोने नातेदारको सिहासनपर बैठनेका अधिकार (जो हिंदुशास्त्रोकी सर्वसम्मतिसे न्यायसंगत है) प्रत्यक्षरूपसे मान लिया। इस मामले में सत्य यही है, कि डलहौसीने अपने राष्ट्र के खुनम भिदे विश्वासघातको काममे लाकर उपर्युक्त स्पष्ट मान्यताको जानबूझकर ठुकरा दिया; क्यों कि, वही तरीका उस समय उसका उल्ल, सीधा करता था। भिन्न-भिन्न राजाओंसे किये अलग अलग सधिपत्रोंमे दत्तक पुत्रका, दत्तक मातापिताके राजसिंहासनपर बैठनेका, अधिकार अमान्य करनेकी, शर्त किसी स्थानपर अग्रेजोसे रखी जानेका उल्लेख नहीं मिलेगा। स. १८२५ में कोटाके राजाके दत्तकको मान्यता देते समय कपनी सरकारने स्पष्ट ही कहा था कि शास्त्रकी सम्मतिके अनुसार अन्य सर्वसाधारण हिदुके समान, कोटा नरेशको भी दन्तक लेने या अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार है। : स. १८३७मे फिर एकबार, जत्र ओरछाके राजाने दत्तक गोद लिया

  • छत्रपतिको जब सातारेकी गद्दीपर बिठाया गया तब जो सधि हुई थी उसमें 'सरकार ने जो सर्वप्रथम शर्त रखी थी वह यों है.

" बहादुर अग्रेज सरकार अपनी ओरसे मान्य करती है कि दर्ज किया हुआ प्रात और प्रदेश छत्रपति महाराजको (सातारा नरेशको) अथवा उनके सस्थानको दिया जायगा, महाराज छत्रपति और महाराजके पुत्रपौत्र, वंगज तथा उत्तराधिकारियोको सदा के लिए, याने पीढी दर पीढी उपर्युक्त प्रदेशपर राज्य करते रहने का अधिकार है (स. १)।" + पार्लियामेटरी पेपर्स १५ फरवरी १८५० पृ. १५३.