पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५२०

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योग नही दिया गया । सिक्ख नरेश तथा सिक्ख पथ के लोगो का क्रान्तिकारियो

से पूरी तरह विरोध था।सो,वे युध्द मे चुप तो नही रहे बल्कि 

खुल्ल्मखुल्ला अंग्रेजो का पक्ष लेकर मैदान मे अपने देशवासियो का खून बहाने मे तनिक भी पीछे न रहे । रानपूताने की सर्वसाधारण जनता की सहानुभूति क्रातिकारियो के साथ थी,यह तो कई प्रसंगो मे सिध्द हो चुका है।जयपुर,जोधपुर तथा उदयपुर से अंग्रेज़ो के मातहत लडनेवाले भारतीय सैनिकों को किस तरह लाखो गंदी गालियाँ दी जाती थीं,क्रान्तिकारियो की विजय के सन्वाद पाते ही वहॉ के बाजारों में आनंदप्रदर्शक जयध्वनि किस प्रकार फूट पडती थी तथा अपजश की बात सुन कर उन के अंतःकरण दुख के दबावसे कैसे दबोचे जाते थे, इन बातों को देखकर यही परिणाम निकलता है, कि इस नहान राष्ट्रीय उत्थान में क्रांतिकारियों के यश की कामना दिन रात राजपूताने वाले किया करते थे।अब राजपूत नरेशों को देखा जाय तो मालूम होता है,कि उन में से बहुतेरे राजा कोही विशेष जिच पैदा होने तक किसी दल को प्रकटरूप से सहायता न देते थे।किन्तु,जब जब अंग्रेज़ो से सैनिक सहायता के बारे में उनपर दबाव डाला जाता तब उन की सेनाए ही अपन राजा की आज्ञा का भंग कर,फिरगियों की ओर से अपने भाहियों से लडने से साफ इनकार कर देतीं। १८५७ क स्वातंत्र्य-समर के कुरुक्षेत्र का मदान अवघ,रुहलेखण्ड, बिहार,बंगाल बुंदेलखण्ड तथा मध्यभारत था। रंगून में एक छोटासा बलवा हुआ,किन्तु यह सब व्यर्थ था,क्यों कि चिडियॉं खेत पहले ही चुग गयी थी। विध्याचल के उत्तर पर हमने सरसरी द्र्ष्ति डाली,अब हम दक्षिण की ओर द्र्ष्टि घुमाए।सब से पहले हमारी नज़र पडेगी शिवाजी महाराज के मराठा साम्राज्य पर।जिस साम्राजय के प्रेमी उत्तर भारत में जा कर कानपुर कालपी,झॉसी की भीषण लढाइयॉ लढ रहे थे।इस तरह, रायगढ से पदन्युत सिंहासन, कानपुर में रक्तसागर में नहाया,फिर से खडा दीख पडा।