पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५२२

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जाती है। कर्तृत्व की तीव्रता से क्राति जारी रहती है।संयम,ढूरंदाजी विद्रोह का दिन निश्र्वित करना आदि बातें सिध्दता करने तक काम की हैं।किन्तु एक बार शंख फूँका गया,डंके पर चोट पडी कि प्राणों की परवाह न करते हुए डट कर लडाइ करना ही कर्तव्य है। उस क्षण में जो हिचकिचायगा, वह अन्त में अवश्य हारेगा। जो उस क्षणमें-विद्रोह करना अच्छा या बुरा है उस की चिंता करेगा वह सदा के लिए गिर जायगा। हमारा श्रीदवाक्य हमारी टेक होना चाहिए। सिध्दता में धीरज और प्रत्यक्ष काम में साह्स हो। सिध्दता करने में धीरे धीरे सावधानी से काम हो-होना चाहिए, जैसे एक कालीन की बुनायी में होता है, किन्तु एक बार विप्लव फूट पडने पर क्षणमात्र भी न झिझक कर घघकती आग के विस्तार में भी तीर के समान घुस जाना चाहिये। फिर विजय हो या पराजय , जीयें या मरें- घमासान युध्द होना चाहिए, मारते मारते मर जाने का निश्र्दय लोगों में होना चाहिए। क्यों कि, एक बार क्रांतियुध्द के नगाडे पर डंडा पड जाय तो क्रांति को सफल बनाने का एकमेव मार्ग है 'आगे बढना और कभी न रुकना !'।

यह प्रधान सिध्दन्त दक्षिणवाले भूल गये। उत्तर में विद्रोह होते ही वे न उठे। वे धीरे धीरे काम करते गये और बारबार झिझकते रहे। सफलता की अत्यधिक चिंता और उसके फलस्वरुप जोश में आकर, बिरले बलवे से पराजय के बिना दूसरा कोई परिणाम न था। यह कैसे हुआ इसका कुछ निरीक्षण हम करें।

दक्षिण में तीन महत्त्वपूर्ण सेना केन्द्र थे। कोल्हापुर में २७ वीं,बेलगॉव में २९ वीं और धारवाड में २६ वीं पलटन थी। लिखापढी द्वारा क्रांति की योजनएं बनीं तब बलवे का दिनांक २० अगस्त १८५७ निश्र्वित हुआ था,किन्तु बीचमें कोल्हापुर की जनता तथा सिपाहियों को द्बाव में रखने के लिए एक गोरी सेना भेजी गयी।तार खाते के एक अधिकारीने यह गुप्त संवाद सिपाहियों पर प्रकत किया।पह्ले से जलते हुए सिपाहियों ने