पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५३५

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अध्याय १ ला] ४९१ सरसरी दृष्टि से पूरब, मध्य, अत्तर अवध में लगभग सभी स्थानों में-अिस तरह की घमासान भिडन्ते हुीं। और ये भिडते केवल अग्रेजों से ही नहीं, मानसिंह तथा पोवेन नरेश के समान विश्वासघातियों से, जो क्षमा के लालच में शत्रु दल में बने रहे थे, भी हुआँ । अवध को अिस तरह दोहरी लडाी लडनी पडती थी। पोवेन पर धावा बोल दिया; लखन की ओर युद्ध जारी था; सुलतानपुर में भिडन्त हुी; नीच विश्वासघाती मानसिंह को अस के किले में बद कर दिया गया; अंग्रेजो के मार्गों पर रुकावटें पैदा की जाती थीं; अग्रेजों की चौकियाँ लुटी गयी थीं; और जिस तरह कातिकारियों ने अवध की चप्पा चप्पा भूमि अपने महान् आत्मत्याग से पूजनीय बना दी थी। जहॉ जहॉ अंग्रेज अन्हें घेर लेते वहाँ वहाँ धेरे को तोड़ कर ये देशभक्त फैल जाते और युद्ध और मतिशोध के नारे लगातार चालू रखते। स्थलाभाव के कारण जिन इलचलों का हम ब्योरा नहीं दे सकते। जैसी भीषण लडाी अवध लडा । निदान, १८५८ के अक्तूबर में हिंदुस्थान क अंग्रेज जगी लाट ने गोरे और काले सिपाहियों की बड़ी भारी सेना फिर से बनायी, सन दिशाओं से अक साथ आक्रमण किया और क्रांति. कारियों को सब ओर से दबा कर नेपाल की ओर धकेलने की आज्ञा दी। फिर भी, अवध ने धैर्य न छोडा और बिना लडाभी के अक चप्पा भी भूमि न छोडी ! बेनीमाधव के शकरपुर को तीन ओरसे तीन सेनाओं ने घेरा था। रसद अस की कम हो गयी थी, जहाँ शत्रु सब तरह से लैस घा, फिर भी बेनी. माधवने हथियार नहीं डाले। तब स्वयं प्रधान सनापतिनै असके पास सदेसा भेजा कि अब लडायी चालू रखनेसे व्यर्थ रक्तपात होगा, क्यों कि जीत के कोमी लच्छन नहीं दिखायी देते। यदि वह शरण मांगे तो असे पूरी क्षमा की जायगी तथा अस की सारी संपत्ति लौटा दी जायगी। बेनीमाधव का उत्तर था:‘किले का बचाव करना अब अमम्भव है, मैं असे छोड़ रहा हूँ। किन्तु शरण? मै कभी तुम्हारी शरण नहीं मॉगूगा; क्यों कि, मेरी देह मेरी अपनी नहीं; मेरे प्रभु की है । " किला तुम्हारे हाथ आयगा; बेनीमाधव नहीं; क्यों कि, अस की देह