पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५४

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यदि तुमसे हो सके तो! किन्तु डलहौसी यदि तुम्हरी बातपर ध्यान न दे तो? तुम समझते हो कि, निदान इंग्लैन्ड मे तो कंपनी सरकार के संचालक तुम्हारी सुनेंगे। डलहौसी तो, भई, एक सादा मानव है, किन्तु हो सकता हे कि इंग्लैन्ड मे रहनेवाले ये संचालक ईश्वरीय अवतार हो। यही न? माहाराष्ट्रीय किसी भी व्यक्ति ने अत्रतक इन देवमानूसो का मूँह तक नही झाका था। और इसी से निश्र्च्य हुआ कि रंगो त्रापूजी जैसे निष्ठावत तथा सुयोग्य सजन इंग्लैन्ड जाय और सातारे की दूखभरी कहानी वहाँ के सत्ताधारियो को सुनायें। सफलता मिले या न मिले, उन्हे विश्वास हुआ कि एकबार जतन तो करना चाहिये। किन्तु अपनी वर्साठी मे सफलता मिलेगी,(जो कि जन्मभर में सत्य न होनेवाली बात थी,) इस आशा-पर वे कहाँतक राह देखते रहते? रगो बापूजी आखिर लंदन हाल रास्ते की फर्श को कहाँ तक घिसते? और हाँ; करोड़ो रुपये अंग्रेज़ वॅरिस्टारो के जेब मे उडेलने पर जिन्हें घर लौटने को एक पाई भी पास न बचेगी और " सातारे का राज्य कभी नहीं मिलेगा" यह अशिष्ट उत्तर कंपनी के मचालको मे साफ साफ जिन्हे दिया जायगा वह रगो बापूजी इस तरह अपमान और मखौल करनेवाला तोहफा अंग्रेज़ोसे प्राप्त होने तक , अपने विफल आशातनू मे आखिरतक चिपके रहेगे!

जब रगो बापूजी लंदन को जानेकी सिद्धांत करनेमे व्यस्त थे तभी एक नयी घटनाने डलहौसीका मन हर लिया। नागपूर राज्यका पतला और सिमटा हुआ पौधा उखाड़ फेकनेका अनायास बहाना मिला था। नागपूर के एकमात्र अधिपति भोसले अपनि आयूके ४७ वे वर्गमें अचानक स्वर्ग मिधारे। बरारका यह अधिपति अग्रेज़ सरकार का माननीय मित्र था। और यहि अंग्रेज़ो की मित्रता भोसलेके विनायका सामान हूआ। जिन्हे भान था कि अंग्रेज़ उनमे द्वेप करते है, किन्तु अंग्रेज़ोको

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