पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अध्याय १ ला ४९७ [सरसरी दृष्टिस aman मालूम होता है, सडकें बनाने और नहरे खोदनसे बढकर अन्य अच्छा धया भारतीयों के लिओ वह ढूँढ न सकी। ___“जनता यदि यह सब कुछ जान न ले तो फिर आशा की तनिक भी सम्भावना नहीं है।" "हमारी यही अिच्छा है, कि अम ग्लैिंडवाली की चोषणा के जाल में कोमी फँस न जाय।" हॉ, तब महारानी से अघोषित बिलाशर्त क्षमादान का लाभ न झुठाने का अवचने निश्चय किया । असके अनुसार अब भी वह अपनी तलवार चमका रहा था, घोडे पर सवार था, रणमैदान में खटा हुआ था, रक्त से लथपथ था, अव यज्ञ की ज्वाला में कूद रहा था। स्वातव्य, या तो अन्ततक युद्ध, यही असका मन्तव्य था। शत्रुके पॉवपर आलोट ने की अपेक्षा अस के गलेपर झपटना ही अस की प्रकृति को जॅचता था। अब भी शारपुर, इढ़ियाँ खटा, रायबरेली, सीतापुर के रणमैदान झूझ रहे थे, स्स्य चीरे जाते थे और फिर भी लडे जाते थे! जिस प्रकार अवध १८५८ के जून में नवंबर तक तथा दिमंत्रर से अप्रैल १८५९ तक लडते हुओ सब ओर से दवाया गया और असे नपाल में खदेडा गया। कातिकारी नेपाल में घुसे तब भी अंग्रेजों ने अन का डटकर पीछा किया। किन्तु अक आशा तन्तु था-नेपाल का हिंदु नरेश झुन्हे आसरा देगा! जिस समय नेपाल में पहुंचे क्रांतिकारियों की संख्या लगभग साठ सहस थी। अिन के नेता थे नानासाहेब, बालासाहेब, बेगम हजरत महल तथा असका पुत्र तथा अन्य । नेपाल के जंगबहादुरने अनके नाम अक पत्र भेजा, अिस के अत्तर में नानासाहबने मितना स्पष्ट, मुंहतोड और व्यंगपूर्ण लिखा था, कि कम से कम असका कुछ भाग यहाँ दिये बिना नहीं रहा जाता। अत्तर यों था:-पत्र प्राप्त । भारत के कोने कोने में हम नेपाल की कीर्ति