पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५४३

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करने की आज्ञा दे, तो हम अब भी कलकतेतक जा सकते है| रसद का प्रंबध हम स्वयं कर लेंगे और आज्ञा उनकी मानेंगे | हम जो भी प्रदेश जीतेंगे उसपर गोरखा सरकार का स्वामित्व होगा | यदि इतना भी न हो सके तो महाराज हमें अपने राज मे आसरा दें और हम उनके आज्ञाकारी बनकर रहेंगे|" कर्नल बलभद्रसिंग गोरखा प्रतिनिधि बोला -" अंग्रेजो ने दयाका द्वार पुरा खोल दिया है; सो, अपने हथियार अंग्रेजों के सामने धर दो और उनका आसरा माँगो |" क्रांतिकारी नेताओ ने कहा ' हमने वह घोषणा सुनी है | किन्तु दुसरो को हानि पहुँचा कर हम अपने कुछ मित्रो के प्राण बचाना नही चाहते । महाराजा जगबहादुर हिंदू है, हम गोरखो के विरुद लडना नही चाहते। वे चाहते है तो हम अपने हथियार उन के सामने घर देते है। यदि हममे से कुछ की हत्योए करना चाहे तो भी हम प्रतिकार नही करेंगे। किन्तु ब्रिटिशों को हमारा प्रतिशोध लेने का मौका देने के लिये उनकी शरण मे क्यो कर जायँ ? "

    और भी बातचीत हुयी । किन्तु अन्त मे क्रांतिकारीयों को जग-बहादुरने सूचित किया, कि यदि क्रांतिकारीयों की सहायता करना वह चाहता तो उनकी कत्ल करने लखनऊ को अपनी सेना क्यो कर भेजता? केवल इस नीच उतर को देकर हो वह न रुका, उसने ब्रिटिशों को नेपाल मे घुस कर क्रांतिकारीयों का शिकार करने की पूरी स्वतंत्रता दी !
   तब क्रांतिकारीयों की सभी आशाओं पर पानी फिर गया। अपने शस्त्र छि पाकर भी गर्द्न झुका कर वे अपने अपने घर चले गये । अब उनको उभाडने मे लाभ न देखकर अंग्रेजों ने भी उनहे न छेडा। फिर भी कुछ एसे वीर महात्मा थे, जो अंग्रेजो का पौरा फिरसे भारत की पवित्र भूमि पर जम रहा है यहा द्रुश्य देख न सके । वे अन्य लोगो के समान घर जाने के बदले जंगलमे ,जानते हुए कि इस्का परिणम भूख़ों मरना है, चले गये । इसी अर्स मे अंग्रेज सेनापति होप ग्र्ँट को नानासाहेब एक पत्र लिखा था । क्या होगा उस पत्र मे ? आत्मसमर्मण की बातचीत चलायी होगी ? छि: कभी नही ।